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बुज्झह, बुज्झह, चण्डकौशिक
पवन की तरह अस्खलित गति से श्वेताम्बी नगरी की ओर बढ़ा चला जा रहा हूँ । इस तेज़ रफ्तार में भी पाता हूँ कि विशुद्ध गति मात्र हूँ, और पूर्ण संचेतन हूँ । मेरे गमन से किसी भी निकाय के जीवों की रंच भी हानि नहीं होती । अनुभव होता है कि उनके साथ आश्लेषित होता चल रहा हूँ । वे स्वयम् मेरे लिये मार्ग बन जाते हैं : और मैं अपने भीतर अनवरुद्ध मार्ग की तरह खुला रहता हूँ ।
एक तिराहे पर पहुँच कर मैं अटक गया । सामने दो रास्ते फटते थे, और दोनों ही श्वेताम्बी को जाते थे । जो रास्ता सरल और छोटा दीखा, उसी पर मैं चल पड़ा । ठीक तभी एक ओर से भेड़-बकरियां चराते आ रहे कुछ गड़रियों ने आकर मुझे घेर लिया ।
__ 'नहीं देवार्य, इस रास्ते नहीं, उस रास्ते जायें । यह रास्ता दीखने में सरल और सुगम है, पर उतना ही कुटिल और कराल है । वह दूसरा रास्ता लम्बा है, पर निरापद है।'
विकल्प करना और अटकना मेरा स्वभाव नहीं । सो मैं उनकी अनसुनी कर, चलता ही रहा । तब वे बहुत आतंकित होकर मेरे मार्ग में लेट गये । कातर विकल हो कर अनुनय करने लगे :
'नहीं भगवन, इस मार्ग पर हम आपको नहीं जाने देंगे । इसकी राह में तापसों का कनक-खल नामक एक उजाड़ आश्रम पड़ता है । वहाँ एक दृष्टिविष सर्प का वास है । उसके दृष्टिपात मात्र से स्थावर-जंगम, छोटेबड़े सारे प्राणियों का क्षण मात्र में देहपात हो जाता है । बड़े-बड़े शरमा इस राह गये, और फिर कभी नहीं लौटे। वर्षों हो गये, मनुष्य के लिये अगम्य और वजित हो गया है यह प्रदेश । इसके मार्ग में प्राणी तो दूर, वायु तक संचार करने से भयभीत होता है।'
तब तो अवश्य इसी राह जाना होगा।
अव्याबाध होने निकला हूँ, तो राह की हर बाधा को तोड़ कर आगे बढ़ना होगा । अगम-निगम के भेद जानने चला हूँ, तो मेरे लिये
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