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'पा गया · · ·पा गया• • तट पा गया, प्रभु !' ‘एवमस्तु ..!'
दक्षिण वाचाला सन्निवेश से विहार करता हुआ, उत्तर वाचाला की ओर अग्रसर हूँ । यात्रापथ में देखा : एक ओर स्वर्णबालुका नदी बह रही है : तो दूसरी
ओर रजतबालुका नदी । लगा कि जैसे मेरी ही दोनों बाहुएँ बहती हुई दिगन्तों तक चली गई हैं । हठात् पीछे किसी का व्याकुल पगरव सुनाई पड़ा। मैं थम गया।
'स्वामी, मैं आपका पितृ मित्र वही सोमशर्मा ब्राह्मण ।'
'भगवन्, आपकी कृपा से प्राप्त वह देवदूष्य वस्त्र ले जा कर मैंने एक तन्तुवाय को दिखाया था। वह बोला कि यह महामूल्य वस्त्र खंडित है : श्रमण से याचना कर इसका उत्तरार्द्ध भी प्राप्त कर ला । तब इन दोनों खण्डों को जोड़ कर अखण्ड कर दूंगा । उसे बेचकर हम दोनों विपुल सम्पदा के भागी होंगे। • • 'कृपा करें भगवन्त, खण्ड को अखण्ड करें ।'
'यहाँ के अशन-वसन मात्र सब खंडित हैं, ब्राह्मण ! अखण्ड भोग पाना है, तो स्वयम् अखंड हो जा।'
'भगवन्, किन्तु लोक में सभी थोड़े बहुत सम्पन्न हैं । फिर मैं दुर्भागी ही निपट विपन्न क्यों रह गया?' ___ 'यहाँ सभी विपन्न हैं, कोई सम्पन्न नहीं । सभी खंडित हैं, कोई अखण्ड नहीं। सभी भिखारी हैं, कोई स्वामी नहीं ! . . .'
'पर मुझ सा दीन विपन्न तो यहाँ कोई नहीं।' 'चरम विपन्न हुआ है, तू ! परम कृपा तुझे पूर्ण सम्पन्न किया चाहती है।' 'मुझ दीन-हीन को, जिसे एक पूरा भोजन या वसन भी नसीब नहीं ?' 'मैं तो निर्वसन हूँ, ब्राह्मण ! और मेरे भोजन का ठिकाना नहीं !' 'भगवन्, कृपा करें!'
'निर्वसन हो जा, ब्राह्मण, त्रिलोक के वैभव तेरा भोजन-वसन होने को तरस जायेंगे !'
'नाथ · · ·!'
· · ·और साष्टांग प्रणिपात में समर्पित ब्राह्मण पर दिव्य वस्त्रों की वर्षा होने लगी।
'बचाओ प्रभु, यह भार नहीं सहा जाता । ये सारे वस्त्र भी मुझे ढाँक नहीं पा रहे । मेरी नग्नता का अन्त नहीं।'
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