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आश्चर्य-चकित लोगों की भेड़िया-धंसान गाँव में लौट कर अच्छंदक के पास पहुंची । बोले कि : 'गुरुजी, गाँव बाहर जो देवार्य आकर ठहरे हैं, वे त्रिकाल ज्ञानी हैं। तुम तो कुछ जानते नहीं, पाखंड करके हमें ठगते रहते हो।' अच्छंदक भयभीत हो उठा : बोला : 'उस नग्न श्रमण को त्रिकाल ज्ञानी कहते हो! चलो तुम्हें दिखाऊँ, कि पाखंडी वह है या मैं हूँ।'
क्रोध से उन्मत्त अच्छंदक ने श्रमण को पराजित करने की युक्ति मन ही मन सोच ली । कौतुकी ग्रामजनों से घिरा वह मेरे सम्मुख आया और दोनों हाथों की उँगलियों के बीच एक घास का तिनका लेकर बोला : ‘बताओ तो त्रिकालज्ञानी श्रमण, यह तिनका मैं तोड़ सकंगा या नहीं ?' उसके मन में यह था कि श्रमण जो कहेगा, उसका ठीक उलटा मैं करूँगा, सो इसकी वाणी झूठ सिद्ध हो जायेगी। अच्छंदक को उत्तर मिला :
'यह तिनका नहीं टूटेगा!'
अच्छंदक ने खेल-खेल में तिनका तोड़ देने की चेष्टा की । · पर मानों किसी अज्ञात वज्र से उसकी उँगलियाँ स्तंभित, आहत हो रहीं । तिनका बिन टूटे ही अखण्ड धरती पर गिर पड़ा । ग्रामजन उल्लसित होकर देवार्य का जयकार करने लगे। इसी बीच निष्प्रभ, हताहत होकर अच्छंदक जाने कब वहाँ से भाग खड़ा हुआ । सहसा ही सुनाई पड़ा :
'यहाँ जो वीरघोष नामा सेवक है, वह सामने आये ।' 'मैं वीरघोष, भन्ते ।' और वह प्रणत हुआ। 'कभी तेरे घर में से दस पल परिमाण का एक पात्र खो गया था ?' 'सत्य है, भगवन् !'
'अच्छंदक गुरु वह चुरा ले गये थे। तेरे घर के पीछे, पूर्व दिशा में जो सरगवा का वृक्ष है, उसके तले एक हाथ धरती खोद कर वह गाड़ दिया गया था । जाकर ले आ।' दौड़ा हआ जाकर वीरघोष निदिष्ट स्थान से पात्र निकाल लाया। सबके सामने प्रस्तुत किया । ग्रामजन स्तब्ध । फिर मुनाई पड़ा :
'यहाँ कोई इन्द्रशर्मा नामक गृहस्थ है ?' 'मैं इन्द्रशर्मा, प्रभु ! क्या आज्ञा है ?' 'भद्र, कभी तेरा एक मेंढा खो गया था?' 'सो तो खो गया था, भन्ते!'
'अच्छंदक गुरु मेंढे को मार कर उसका आहार कर गये थे । उसकी अस्थियाँ बेर वृक्ष की दक्षिण दिशा में गड़ी हैं।'
कुछ लोगों ने वहाँ जाकर धरती खोदी, तो सूचित अस्थियाँ साबित मिलीं। प्राण पाकर ग्रामजनों के हर्ष और विस्मय का पार नहीं।
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