Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आ
(Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५)
[Type text] संज्झाणुरागसरिआ- सन्ध्यानुरागेण सदृशात् वर्णतः। | व्यव० ३१ अ। खण्डं, वनम्। जम्बू. २४२। षण्डः। आव. ज्ञाता०२३१
४१४१ संज्झाराग-सन्ध्यारागः। प्रज्ञा० ३६१।
संडास-सदंसं-ऊरूसन्धिम्। ओघ० ८४ सण्डासं-जङ्घोसंज्ञासूत्र- त्रिविधसूत्रे प्रथमम्। बृह. ५० आ।
वरिन्तरालम्। ओघ० १०७। संदेशकः। बृह० २५९ आ। संज्ञि- सम्यक्त्ववान्। आचा० २८१।।
सदंशः। दशवै. १२३। संदंशकः- सगुष्ठतर्जन्योरग्रम्। सट्टमाणिय-स्यन्दमानिकः-पुरुषप्रमाणं जन्पानविशेषः। आव०६४| निशी०१८। भग०५४७।
| संडासए- अङ्गुष्टप्रदेशिनीभ्यां यत्गृह्यते। व्यव० ३६९ संठप्पय-संथाप्यतः तत्कृत्यकरणम्। भग०४६९। संठवण-महादीर्ण उज्जभावणं। निशी० १२३ अ। लिंपणं। | संडसगं- संडासकं नासिकाकेशोत्पाटनम्। सूत्र. ११७५ निशी० २३२आ।
ज्ञाता० १४३। संठवावेति-संथापयति। आव०५५५
संडासत-संदंशकम्। आव. २२७। संठविय- संस्थापितः-संस्कृतः। नन्दी०६४। संस्थापितः- संडासतोंड- संदंसतुण्डः-संदंशकाकारमुखपक्षी। प्रश्न. १४। मीलितः। प्रश्न०६४
संडिर्भ-संडिम्भं-बालक्रीडास्थानम्। दशव १६६) संठवेयव्व-संस्थापयितव्यः। आव. ५६०
संडिब्भं- बालरूवागि रमंति धणहि। दशवै. ७५ संठाण-संस्थान-मृगशिरः। जम्बू० ४९७। संस्थानं- संडिय-तृणविशेषः। प्रज्ञा० ३३
आकारविशेषः। जीवा० १०३। संस्थानं-कटीनिविष्टकरा- | संडिल्ला- शाण्डिल्याः जनपदविशेषः। यत्र नंदीपुरनगरम्। दिसन्निवेशात्मकम्। उत्त०४२८। संस्थानं-आकारः। प्रज्ञा०५५ स्था०६८। संस्थापनं-आकारविशेषः। प्रज्ञा० ४७२ | संडेय- षण्डेयः-षण्डपुत्रकाः। औपर। संस्थान-स्कन्धाकारः। भग० ८५८१ संस्थान-आरोपित- | संडेया- षाण्ढेयाः-षण्ढपुत्रकाः षण्ढा। ज्ञाता० १। ज्याधनुराकारः। स्था०६८। संस्थानः-मृगशिरो नक्षत्रम्। | संडेल्ला-काश्यपे द्वितीयो भेदः। स्था० ३९० सूर्य. २२५। संस्थान-सम्यगवस्थानम्। जीवा० ३४५) संडेवए- सण्डवकः-पाषाणादि। ओघ. ३१ सण्डेवकःसंस्थानं-आकारविशेषः। प्रज्ञा० २९३। संस्थानं
पाषापणादि योऽन्यस्मिन्पाषाणादो पादनिक्षेपःस विन्यासविशेषः। दशवै०२३७। संस्थानं-आकारः। भग. संडेवकः। ओघ. ३११ ११। संस्थानं शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका। स्था० | संडेवा- तज्जातशिलादयः, अन्यतो वा नीताः इट्टालका३५७। संस्थानं-यथास्थामनङ्गोविन्यासः। जम्बू. १८२। दयश्च। बृह. १६२ अ। संठाणविजए- धर्मध्यानस्य चतुर्थो भेदः,
संणाय- कुटुम्बम्। आव० ४०५ संस्थानानिलोकद्वी-पसम्द्राद्याकृतयः तस्याः संणायकुल-सजातीयक्लम्। आव० ८४६। विचयो-निर्णयो यत्र तदा संस्थानविचयः। भग. ९२३। संणिवेस- सत्थावासणत्था णं संणिवेसं गामो वा पिंडितो संठिई-संस्थितिः-व्यवस्था। जम्बू०५४३। संस्थितिः। संनिविट्ठो जत्थ गतो वा लोगो संनिविट्ठो सण्णिवेसं। सूर्य०६७। संस्थितिः-अवस्थानम्। सर्य.७। संस्थितिः- निशी०७०आ। व्यवस्था। सूर्य०६, ८1
सण्णा- सज्ञाःसंठिए- संस्थितं-सदृशकारम्। अनुयो० १७२।
असातावेदनीयमोहनीयकर्मोदयसम्पादया संठित-संस्थितः विशिष्टसंस्थानवद। ज्ञाता०२
आहाराभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषः। सम०१० संस्थितं-वृत्तचतुरस्रम्। बृह० २४४ आ। संस्थितः- संत-श्रान्तः शरीरतः। ज्ञाता० ९७। सन्तः व्यवस्थितः। सूर्य०४।
सौम्यमूर्तित्वात्। ज्ञाता०१०३ श्रान्तः-शान्तो वा संठियंमि-संस्थिते। ओघ. २१११
मनसा। ज्ञाता० १३९। श्रान्ताः-खिन्नः। ज्ञाता० २२४। संड- षण्डः। आव० ८२५। षण्डः। व्यव० ३१ अ। सत्कः। | श्रान्तो भवभ्रमणात्। जं० १४६। अन्तर्वृत्त्या शान्तः।
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [१]

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