Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 23
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संधीणामजो-जो पण्णस्स मज्झे पासलतो पुट्ठीवसोत्ति। संनि-वेशः। दशवै० १८३ स्था०८६। सन्निवेशः वृत्तं भवति। निशी० १४१ । घोषादिः। भग० ३६ संधीसंखेडग- जतो गमिस्संति सो दिसाभागो। निशी० ८६ | संनिवेसणा- संनिवेशना-स्थापना। उत्त० ५८६। । संनिवेसमारी-सन्निवेशमारी-मारीविशेषः। भग. १९७१ संधुकिओ- प्रगुणितः। आव०६९३| संनिसिज्जा-सम्यग् निषीदन्ति-उपविशन्त्यस्यामिति संनत-सन्नतः अधोनमतम्। प्रश्न०८० सनि-षद्या-पाठाद्यासनम्। उत्त० ४२४। संनद्ध-सन्नद्धः-सन्नहत्यः कृतसन्नाहः। विपा०४६। संनिहाण- सन्निधानं-यो हि लघुकर्मा सम्यग् निधियते संना-संज्ञा-समाचारः। बृह० ११३ आ। नारकादिगतिष येन तत् सन्निधानं-कर्म। आचा. संनायग-सञ्झातकः स्वजनः। बृह. ११९ आ। २७५ सन्निधीयते यत्र कारणं तत् सन्निधानंसंनाहपट्ट- विहारे शरीरेणोपधैर्बन्धनार्थकः पटः। बह. अधिकरणम्। आव २७८1 २५३ आ। संनिहाणसत्थ- सम्यग् निधीयते नरकादिगतिष येन संनिओग-सन्नियोगः-स्वपरप्रयोजनेष तत्स-न्निधानं कर्म तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं यदि सम्यग्व्यापारणम्। उत्त०६३१| वा सन्निधा-नस्य-कर्मणः शस्त्र संयमः संनिकास-संनिकाशः प्रभा। जीवा. २१४१ सन्निधानशस्त्रम्। आचा० २७५ संनिकेय-संनिकेत-स्थानम्। भग० ४६९। संनिहि-सन्निधिः-सम्यग्निधीयत इति सन्निधिःसंनिगब्भ-सज्ञिगर्भसङ्खयः। भग० ३७३। विनाशि-द्रव्यः। आचा० १३० सम्यग् निधीयते संनिचओ- सम्यग निश्चयेन चीयत इति सन्निचयः। अवस्थाप्यते स सन्निधिः। आचा० १०८। सन्निधिःआचा० १३०। सन्नियः-प्राच्र्यम्पभोग्यद्रव्यनिचयः। गोरसादिः। आचा० ३२७। सन्निधिः- पर्युषितम्। दशवैः आचा. १०८1 संनिचयाइ-सन्निचयः-धान्यसञ्चयः। भग० २००। संनिहिए- अणपण्णिकानमिन्द्रः। स्था०८५ संनिचिए- संनिचितं प्रचयविशेषनिबिडम्। भग. २७५, संनिहिय-सन्निहितं-विनिवेशितम्। ज्ञाता०१३०| सन्नि२७७ धिकः-दाक्षिणात्याणपन्निकव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० संनिचित-सन्निचितः प्रचयविशेषान्निबिडीकृतः। अनुयो०१८२ संनिहिसंनिचओ- सन्नियचः सन्निधिस्तस्य। संनिभा- छाया। उत्त० ६५२। सन्निचयः। आचा० १०८1 संनिरुद्ध- सन्निरुद्धः-गृहस्थाकला वसतिर्भवति। आचा० | संनिही- सन्निधिः-घृतगडादीनां सञ्चयक्रिया। दशवै. ३७० ११७। सन्निधीयते नरकादिष्वनेनात्मेति सन्निधिः। संनिवाइए-सन्निपातिकः उदयादिवयादिभावानां घृतादेरुचित-कातिक्रमेण स्थापनम्। उत्त०४५६। मेलकः सन्निपातः। स एव तेन वा निर्वृतः। अनुयो. | संनी- संजी-गृहीताणुव्रतः अविरतिसम्यग्दष्टिर्वा। बृह. ११४॥ २९७ आ। संनिवाइय-सान्निपातिकः द्रव्योपसर्गे भेदः। आव० ४०५। | संपइ- राया-असोगसिरिदिण्णरज्जो। निशी० ४४ आ। संनिविट्ठ- सन्निविष्टं, सम्यग्-निश्चलतया संपउत्त- संप्रयुक्तः-योजितः। ज्ञाता० ५७। सम्प्रयुक्तः अपदपरिहारेण च निविष्टम्। जम्ब० २९२। सम्यक्- सज्जितः। जम्बू. २६५ स्वशरीरानाबाधाया निविष्टः सन्निविष्टः। जीवा. | संपओग- सम्प्रयोगः-प्रवर्तनम्। ज्ञाता० २३८। संप्रयोगः१९४। सन्निविष्टः-आवासितः। आचा० ३३५१ सम्यक संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पितः। दशवै. संनिवेस-सन्निवेशः-यत्र सार्थादिरावासितः। जीवा० २७९। । ४०| संप्रयोगः-सम्यर्कः। ओघ ८८1 सनिवेशः-यात्रादिसमायातजनावासः। उत्त०६०५) संपक्खाल- मृतिकादिघर्षणपूर्वकं योऽङ्ग क्षालयत्ति। १९८१ ९ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [23] "आगम-सागर-कोषः" [१]

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