Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 36
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सओ-सन्तः। भग०४५५ ३०० सकंसा-सह कांस्यः द्रव्यमानविशेषः सकांस्यः। उपा०४८। तः-पक्षिविशेषः। अनुयो०१४१| सक- शकः। प्रश्न०१४। सकुर-आचामामाम्लम्। आव०८५५) सकक्कस-सकार्कश्यं-कर्कशभावोपेतम। औप०४२ सकलिका- शकीनका। निशी०४४ आ। ओघ.१८१ सकुली- पर्पटिः। निशी. २६० आ। सकडक्ख-सकटाक्षः-सापङ्गदर्शनः। ज्ञाता०१६५ सकुहर- सच्छिद्रः। जम्बू० ४०० सकडाह- समांसं-सगिरं तथा कटाहम्। प्रज्ञा० ३७। सकुहरगुंजंतवंसतंतीसुसंपउत्त- सकुहरो गुञ्जन् यो वंशो सकण्ण-सकर्णः। आव० ३९८१ यत्र-तन्त्रीतलताललयग्रहसुसंप्रयुक्तं भवति, सक्हरे सकथ- तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः। निर० २७। वंशे गुञ्जति तन्त्र्यां च वाद्यमानायां सकम्मपरिणामज्जणिय-स्वकर्मपरिणामजनितम। यत्तन्त्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुआव०५८६| जवंशतन्त्रीसुसंपहयुक्तम्। जीवा. १९५१ सकरणं- मनोवाक्कायकरणसाधनः सलेश्यजीवकर्तुको सकृत- एकवारः। ओघ० १८११ जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारः। सकरणं-वीर्यम्। संकेय-संकेतक-केतनं केतःभग०५७ चिह्नमङ्गुष्ठमुष्ठिग्रन्थिगृहादिकं स एव केतकः सकल- शकलं- खण्डरूपम्। सूर्य १३६। सहकेतकेन सकेतक-ग्रन्थादिसहितम्। स्था०४९९। सकलचन्द्रः- वाचकविशेषः। जम्बू. ५४४| सकोतिगा- गमणागमणसचेट्ठा। ते य सवीरियत्तणतो सकलचन्द्रगणिः- शान्तिचन्द्रगुरवः। जम्बू. ४२४। चेव सकोतिगा। निशी. ११६ आ। सकषायोदय- विपाकावस्थां प्राप्तः स्वोदयम्पदर्शयन् | सकोसं-तस्यां पूर्वादिशु दिक्षु प्रत्येक कषाय-कर्मपरमाणुः। प्रज्ञा० १३५। सगव्युतमूर्ध्वमधश्चार्द्ध-कोशं अर्धयोजनेन च समं ततो सकसाई-सकषायी-कषायोदयसहितः। प्रज्ञा० १३५ सह यस्य ग्रामोऽसन्ति सत्सकोशम्। व्यव० ३७२ अ। कषायो यस्य येन वेति सकाषायः-जीवपरिणामविशेषः सक्क- सोधर्मदेवलोके इन्द्रः। स्था० ८५ शक्रः-देवराजा। स विद्यते यस्य स सकषायी। प्रज्ञा० ३८६। आव० ३५९। शक्रः-आसनविशेषाधिष्ठाता शक्रः, सकसाए- सकषाय-सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्ठितः। दक्षिणा-र्द्धलोकाधिपति। जम्ब०७५ शक्रः-सौधर्मेन्द्र। आचा. ३४६। स्था० ५१८ शक्रः- देवानां स्वामी। उत्त. ३५०। इन्द्रः। सकसिणं- अखंडिय। निशी. १३६ आ। ज्ञाता०२५३। सकह-सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः। भग. सक्कणोमि- शक्नोमि। आव० ४०२। ५२०| सक्थि , दाढम्। जम्बू. १६२ सक्कदूए- शक्रदूतः। शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधिपतिः सकहा- सक्थी अस्थी। सम० ६४। सकथा-हनमा। आव० हरि-नैगमेषीदेवः। भग. २१८ १६९| सक्कप्पभ- शक्रदेवेन्द्रस्य उत्पातपर्वतः। स्था० ४८२१ सकाम- सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं, सक्करप्पभा- शर्कराप्रभा द्वितीयानरकपृथ्वी। प्रज्ञा० ४३। सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया। उत्त० २४२। शर्कराप्रभा-उपलखण्डप्रकाशवती पृथ्वीविशेषः। अन्यो। एकशः। बृह. १४ । ८९। सकाममरण-भक्तपरिज्ञानादि प्रशस्तः। उत्त० २४१ | सक्करा- शर्कराः-कीरकाः। जम्ब० ३७४। शर्करासकालष्य-आविलम्। ५३ लघूपशकलरूपा। प्रज्ञा० २७। पृथिवीभेदः। आचा० २९ सकिरिए- सक्रियः-कायिक्यादिक्रियायुक्तः सकर्मबन्धनो | | शर्करा-कर्करकः। जीवा. २८२ शर्करा-काशादिप्रभवा। वा। भग० २९५। आचा० ४२५ प्रज्ञा० ३६४। शर्करा-लघूपलशकलरूपा पृथिवी। जीवा० २३। सकिरित- सक्रियं-प्रस्तावादशुभकमबन्धयुक्तम्। स्था० | शर्करा-लघूपलसकलरूपा। उत्त०६८९। शर्करा मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [36] "आगम-सागर-कोषः" [५]

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