Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 71
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] आव०५१४१ घनमसृणनिरुपहतं वस्त्रम् सदसियागं वस्त्रम्। ब्रह. सयणिज्जग-स्वजनः। ओघ. २०| सज्ञातीयः। उत्त. २२६ आ। १५० सयलग-शकलम्। आव०४२५ सयणिज्जय-स्वजनः। आव० ३४५ सयवत्त- शतपत्रम्। प्रज्ञा० ३७। सयनि-दीर्घकायप्रसारणेन शेते-वर्तते। जीवा. २०११ | सयवसह- त्रयोविंशतितममुहूर्तनाम शतवृषभः। जम्बू० सयदुवार- द्वादशमअममतीर्थकृत्पत्तिस्थानम्। अन्त० ४९१३ १६। शतद्वारं नगरविशेषः। अन्त०१६। शतद्वारं-नगरं | सयवाइय- त्रीन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२॥ धनपतिराजधानी। विपा० ३९। भग० ६७८। सयसाहस्सीय-लक्षम्। सम.१०४। सयदेव- अचलपुरीयकौम्बिकः। मरण | सयसिक्कर- शतशर्करम्। आव. २७३। सयधणू- जम्ब्वैरवते सया-सदा-सर्वदा। भग० ८३ आगामिन्यामुत्सर्पिण्यामष्टमकुलकरः। सम० १५३।। सयाउ- स्वयम्।आव० ६८३। जम्बूभरतेऽतीतायामवसीनिरयावल्यां पञ्चमवर्गे दवादशममध्ययनम्। निर०९। | ण्यां द्वितीयकुलकरः। स्था०५१। सयनं- त्वग्वर्तनम्। निशी० २४७ अ। सयाऊ-जम्बूभरतेऽतीतायामवसीण्यां द्वितीयकुलकरः। सयपत्त-कमलविशेषः। प्रज्ञा० ३३। ज्ञाता०९६| सम० १५० सयपाग- शतपाकं-रूपकानां शतेन मूल्यतः पच्यते। स्था० | सयाजला-सदा-सर्वकालं जलं-उदकं यस्या सा सदाजला। ११८ शतपाकं-शतेनौषधीनां पक्वं, शतवारा वा। बृहः । सूत्र. १४० १०९आ। शतपाकं शतकृत्वोऽपरापरौषधिरसेन सयाणिओ- शतानीकः कौशाम्बीनगराधिपतिः। आव. कार्षापणानी शतेन यत्पक्वं तत्तैलम्। जम्बू. ३९४१ २२२। शतानीकः-कौशाम्बीनगराधिपतिः। आव०६३ सयपुप्फा- शतपुष्पा। उत्त० १४२। वनस्पतिविशेषः। भग० | सयाणीए- शतानीकः-कौशाम्बीनृपः। विपा० ६८१ ८० सयाणीय- उदायनपीता मृगावतीभर्ता। भग०५५६ सयपोरागकिमि-शतपर्वकृमिः इक्षुपर्वकृमिः। जीवा. सयाली-आगामी एकोनविंशतितमतीर्थकृतत्पूर्वभवनाम। ११७ सम०११४ सयबल- शतबलराजा। आव० ११६) सयावरणं- सदावरण- शोभार्थं दंशमशकादिरक्षार्थं वा सयभत्ति-शतभक्तिः -शरसड़खाविच्छित्तिः। औप०६७। प्रच्छादानपटः। जम्बू० २३६) सयभिसया- त्रयोविंशतितमनक्षत्रम्। स्था० ७७ सयासवा- आश्रवति-ईषत्क्षरति जलं यैस्ते आश्रवाःशतभिषक् । सूर्य. १३० सुक्ष्म-रन्ध्राणि सन्तो विद्यमाना सदा वा-सर्वदा सयय-सततं-अनवरतम्। भग० १९। शतसङ्ख्या वाऽऽश्रया यस्यां साः सदाश्रवाः शताश्रवा। सयरह- जम्बूभरते अतितायामवसर्पिण्यां दशमकुलकरः। भग०८३॥ सम० १५०। भरतेऽतीतायामुत्सीण्यां दशमकुलकरः।। | सयासुक्ख- सदासौख्यः-उपवर्गो नित्यसुखः। आव० ८५२। स्था०५१८ सरंढ- भुजपरिसर्पविशेषः। प्रज्ञा० ४६। भजपरिसर्पः सयराह- झटिति। अनुयो० १७५। अकस्मात् हेलयेत्यर्थः। तिर्यगयोनिकः। जीवा० ४० औप. १०१। युगपदर्थाभिधायकं त्वरितार्थाभिधायकं वा | सरंष- शरम्बः-भुजपरिसर्पविशेषः। प्रश्न० ८१ देशीवचनम्। आव० १५०| एकहेलया। प्रश्न. ४९। सर-स्वरः-गाम्भीर्यादिगुणोपेतः। उत्त० ४८९। स्वरःसयरिसह- शतवृषभः। सूर्य. १४६। शब्दः षड्जादिः। स्था० ४२७। स्वरः-शिवादिरुतरुपः। सयरी- शतरी-वृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२| उत्त० ४१७। स्वरंसयल-सकलम्। उत्त०६७९| जीवाजीवादिकाश्रितस्वरस्वरूपफलाभि धायक सयलकसिण- एकपरं एकतलं चर्म। ब्रह. २२ आ। शास्त्रम्। सम०४९। सरः-स्वतः सम्भवो जलाश मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [71] "आगम-सागर-कोषः" [१]

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