Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 109
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सिलिंका-शलाका। आव० ३६९। सि(खि)ल्लिं-रश्मि-संयमनरज्जु। उत्त० ५५१| सिलिंद-शिलिन्दः-मकण्ठः। दशवै. १९३। सिल्हक-तुरुष्कम्। प्रज्ञा०८७ सिलिंध- शिलिन्धं-इषद्रक्तवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ९१।। सिवंकर- शिवकरं-शिवं-मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यवसिलिन्धं भूमिस्फोटकच्छत्रकम्। औप०४९। स्थागमनमिति। सूर्य. १९७५ सिलिग्न्ध्रः-भूमिस्फोटः। ज्ञाता० १६० सिव-शिवं-अशेषदूरितोपशमः। उत्त० ३४१। भग० ५५१, सिलिंधपुप्फ-शिलिन्ध्रपुष्पम्। जीवा. १६४। ५५२। शिवः-शिवहेतुः। ज्ञाता०७४| शिवःसर्वाऽऽबाधारशिलिन्ध्रपुष्पं-निलवर्णप्ष्पम्। प्रज्ञा० ९५ हितम्, महावीरः। भग०७। यत्र वेलन्धरनागराजो सिलिंधा-शिलन्ध्राः-छत्रकाणि। ज्ञाता०२५१ वस्ति। स्था० २२६। शिव-पवित्रम्। दशवै० १९५। शिवंसिलिट्ठ-श्लिष्ठम्। आव. ९९। सदा मङ्गलोपेतम्। जीवा. १६०| शिव-शिवहेतुत्वेन, सिलिट्ठसमिइगब्भ-लक्ष्णसमितिगर्भः अहिंसायाः सप्तत्रिंशत्तमं नाम। प्रश्न. ९९। शिवंअतिश्लक्ष्णकणिका मूलदलः। जीवा. २६८। अनुपद्रवः, अनुपद्रव-हेतुर्वा। भग० ११९| शिवंसिलिपई-लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शनौ सर्वोपद्रवरहितम्। जीवा० २५६। शिवः व्यन्तरविशेषः, शिलावन्महा-प्रमाणो भवतः स एवंविधः श्लीपदी। ब्रह. आकारविशेषः, आकारविशेषधरो वा रुद्रः। भग० १६४| १९०। हस्तिनागपुरे राजा। भग. ५१४। शिवः -शिवहेतुः। भग० सिलिपत्तो-रोगो। निशी. १४८ अ। १२५। शिवःपोसमासस्य लोकोत्तरिक-नाम। जम्बू. सिलिया-शिलिका-किराततिक्तकादितृणरूपा। ज्ञाता० ४९०। भगवत्यां पुद्गलोद्देशके अतिदेशः। भग. ५११| १८१ शिलिका-किराततिक्तप्रभृतिका। विपा०४१। शिवः-मगधाजनपदे राजा। आव० ३५६। शिवःसिलिवय- लीपदं-पादादौ काठिन्यम्। आचा० २३५) पञ्चमबलदेववासुदेवपिता। सम० १५२। शिवःसिलदयय-शिलानां उत-ऊर्ध्वं शिरस उपरि चयः-सम्भवो देवताविशेषः। जीवा. २८१। शिवःयत्र स शिलोच्चयः। सूर्य.७८1 देवताकृतोपसर्गवर्जितः कालः। आव०६३९। शिवःसिलेच्छियामच्छ-मत्स्यविशेषः। जीवा० ३६| पुरुषसिंहवासुदेवपिता। आव० १६३। शिवः-लोकोत्तरे सिलेस- श्लेषः-केनचिज्जतसिक्थादि। दशवै० १७२। षष्ठो मासः। सूर्य. १५३। भगवत्यां महाबलाधिकारे श्लेषः- सर्जरसः। आचा. १७। श्लेषो-वज्रलेपः। भग. अतिदेशः। भग० ५४४। निरयावल्यां तृती यवर्गेऽष्टममध्ययनम्। निर० २१, ३६, २७ शिवःसिलेसगुलिया- श्लेष्मगुटिका। अनुत्त० ५। आकारविशेषधरः, व्यन्तरविशेषो वा। अन्यो० २५१ सिलेसद्द-श्लेषाद्र-वज्रलेपायुपलिप्तं स्तम्भक्ड्यादिकं शिवं-सर्वबाधारहितम्। सम. ५ शिवं-मोक्षः। सम० ६२१ यद् द्रव्यं तत्स्निग्धाकारतया श्लेषाम्। सूत्र० ३८६) भिक्षं सुरवविहारं च। बृह. १५१ अ। शिवो-महादेवः। सिलेसमिस्सा- श्लेषद्रव्यविमिश्रितम्। प्रज्ञा० ३४। ज्ञाता० १३४। शिवत्वं जरामरणाभावेन। उत्त०५१० सिलोग-श्लोकः-तत्तत्स्थान एव श्लाघा। स्था० ५०३ । सिवकोहग-शिवकोष्टकः-तगरायामाचार्यशिष्यः सद श्लोकः। दशवै. २७४१ श्लोकः-छन्दविशेषः। दशवै. व्यवहार-काचार्यः। व्यव० २५६ आ। २५६। श्लोकः-श्रलाघा। भग०६७३। श्लोकः। आव०७९३ | सिवग-शिवकः-द्वितीयो वेलन्धरनागराजः। भुजगेन्द्रो तत्स्थान एव श्लाघा। दशवै. २५७ भुजग-राजः। जीवा० ३११| सिलोगद्ध-श्लोकार्द्धम्। आव० ७९३। सिवदत्त-शिवदत्तः। उत्त० ३८० शिवदत्तःसिलोच्चय- शिलाना-पाण्डुशिलादीनामुक्-शिरस उपरि | नैमित्तिकवि-शेषः। आव० २०५। चयः-सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः, मेरुनाम। जम्ब० सिवदत्ता-शिवदत्ता-शिवदत्तपत्री। उत्त० ३८० ३७५ सिवभद्द-भगवत्यामदायनवक्तव्यतायां सिल्ल-वालमयम्। बृह. ६९। केशिकुमारराज्याभिषेके अतिदेशः। भग०६१८, ६१९, ३९९। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [109] "आगम-सागर-कोषः" [५]

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