Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 38
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] सगडब्भि-स्वकृद्भित्-स्वकृतमनेकजन्मोपात्तं कम्म | सगीतार्थ- प्रत्त्युच्चारणसमर्थः। निशी० ३२२ आ। भिनत्तीति स्वकृतभित्। आचा० १७१। सगेवेज्ज-सह ग्रैवेयकेण- ग्रीवाबन्धनेन यथाभवति सगडमुह- शकटमुखं-उद्यानविशेषः। आव० १४७। शकट- तथा। ज्ञाता०८६। मुख-उद्यानम्। आव० २१०| शकटमुखम्। जम्बू. १५०| | सगोप- परस्परबाहुगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्धमिति। सगडलट्टणीपएसबद्ध- शाकटलट्ठनी(कट) प्रदेशबद्धः। उत्त०४०४१ आव०४१७ सग्ग-स्वर्ग:-देवलोकदेशः प्रस्तटः। भग० २२११ सगडवडा- शकटवर्तनी। आव० ३५८, ५१४। सग्गपयाणग-स्वर्गे गन्तव्ये प्रयाणकमिव-गमनमिव सगडवूह- शकटव्यूहः-शकटाकारः सैन्यविन्यासविशेषः। यत् स्वर्गप्रयाणकम्। प्रश्न. १०२ निर०१८ सग्गह-जं क्रूरग्रहेणोत्क्रान्तं तं सग्गह। निशी० ९९ अ। सगडाल-शकटालः-योगसङ्ग्रहे शिक्षादृष्टान्ते कल्पकवं- | दालन्यागसङ्ग्रहाशक्षादृष्टान्त कल्पकव- | सकट-सङ्कलः। प्रश्न.१६| शप्रसूतो नवम नन्दराजमन्त्री। आव०६७०। शकटालः सङ्कटद्वार-क्षुद्रद्वारः। आचा० ३२९। स्थूलभद्रपिता। उत्त. १०४, १०५ शकटालः-नवमे नन्दे | सङ्कलन- गणितम्। स्था० ४७८1 सङ्कलनंकल्पकवंशप्रसूतः। आव०६९३। गणितविशेषः। नन्दी० २३८१ सगडीसागड- शकट्यो-गन्त्रिका-शकटानां गन्त्रिविशेषाणां | सङ्कलनादिकं-। स्था० २६३ समूहः। भग० ६६८। शकट्योः -गन्त्र्यःशकटानां समूहः । | सङ्कलिका- सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमाध्ययननाम, शाकटं च शकटीशाकटम्। ज्ञाता० ११८ अस्याध्यय-नस्यान्तदिपदयोः सङ्कलनात् सगड्डढिसंठिय- शकटोद्धिसंस्थितं सङ्कलिका। सूत्र. २५३। रोहिणीनक्षत्रसंस्थानम्। सूर्य. १३० सङ्कलित- गणितविशेषः। जम्बू. १३७। सगइद्धीसंठिय-शकटोर्द्धिसंस्थितः। सूर्य०७३। सङ्कीर्णभाषा- शौरसैन्यादिः। जम्बू. २५९। सगडुद्धी- शकटोर्द्धिः। आचा० १५ सकुल- ग्रामविशेषः। आधासम्भवदृष्टान्ते सगपाय-अप्पणिज्जो सण्णामत्तओ। निशी. १९३। जिनदत्तश्रावकस्य भद्रशिलग्रामनिकटे ग्रामः। पिण्ड. सगर- जम्बूभरते द्वितीयचक्रवर्ती। सम० १५२। सगरःपरिनिर्वृतः चक्रवर्तिविशेषः। उत्त०४४८ सगरः-राज- | सक्लिश्यमानक-उपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य शार्दुलः, द्वितीयचक्रवर्ती। आव० १५९। सगरः सूक्ष्मस-म्परायम्। स्था० ३२४| चक्रवर्ती-विशेषः। प्रज्ञा० ३०० सक्षेपः- समासः-भेदष्वन्तर्भावः। भग० ३५७। सगरचक्रवर्ती- सुबुद्धिमहामात्यवान्। नन्दी. २४२ सखडिमनादर-यत्रेवासौ सड़खडिः स्यात्तत्र न सगारदुअ- सह अगारेण वर्तत इति सागारी गृहस्थः गन्तव्यम्। आचा० ३२९। तयोर्दवयं तादेव द्वौ। ओघ०१६) सङ्गम- परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे सुन्दरस्य जामता। सगरसुत-ज्वलनप्रभनागाधिपकृतोपद्रववान्। जम्बू. पिण्ड० १२७ २२३। सगरचक्रवर्तीपुत्रः। आव० १६९। सङ्गमस्थविर-कृतिकर्मणि नित्यवासविषये उदाहरणम्। सगह-संगह क्रूरग्रहेणाक्रान्तं तत्। व्यव० ६३ अ। आव. ५१७। क्रीडनधात्रीदोषविवरणे आचार्याः। पिण्ड. सगा- म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ १२७ सगार- सागरः-सह आगारेण वर्तत इति गृहस्थः। औप. सङ्गर-सङ्गरः। नन्दी. २११ १६| सङ्ग्रहणि- अर्थे प्रकारः। सम० १०९, १११| सगास-सकाशं-मूलम्। ओघ० २०| सङ्ग्रहपरिज्ञासगिं- सकृत्। व्यव० २७५अ। बालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रह-णलक्षणादि सगिहगमणं-स्वगृहगमनम्। ज्ञाता० १६९। | चतुर्भेदभिन्ना। उत्त० ४० ६३॥ मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [38] "आगम-सागर-कोषः" [५]

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