Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-५)
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सप्पभ- सप्रभं-स्वरूपतः प्रभावत्। प्रज्ञा० ८७ सप्रभं
स्वरूपतः प्रभावान्। जीवा० १६१| सप्पभा- त्रयोदशमतीर्थकृत्शीबिका। सम० १५११ स्वरूपतः प्रभावती सप्रभा। जम्बू० २११ सप्रभा-देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः, अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति न परत इति स्वप्रभाः। स्था० २३२॥ सप्पसर-सप्रसरं-अनेकधा स्फारयन्। दशवै०४४। सप्पसुगंधा-बीजरुहावनस्पतिविशेषः। भग०८०४। सप्पसुघंधा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा०
३४॥
सप्पह-सप्रभां सप्रभावां, अथवा स्वेन-आत्मना प्रभाति
शोभते प्रकाशते वेति स्वप्रभम्। सम० १३८५ सप्पहासो- अतीवसहासो। दशवै० १२५ सप्पि-सी पीठसी, स पाणिगहीतकाष्टः सर्पतीति।
प्रश्न. १६२ सप्पिआस-सर्पिराश्रवः लब्धिविशेषः। औप०२८ सप्पिवासव- सपिपासम्। आव. १८९। सप्पिसल्लग-सप्पिसल्लकः-यः सह पिसल्लकेन पिशाचकेन वर्तते सः, ग्रहगृहीत इति। प्रश्न० १६२। सप्पुरिस- किंपुरुषेन्द्रः। स्था० ८५। गान्धर्वेन्द्रविशेषः।
जीवा. १७४। सत्पुरुषः दक्षिणनिकाये षष्ठो व्यन्तरेन्द्रः। भग०१५८ सफा- वनस्पतिविशेषः। भग० ८०४। सफाए- कुहणविशेषः। प्रज्ञा० ३३॥ सफुसिए- प्रवृत्तप्रवर्षणबिन्दुः। ज्ञाता० २४। सफुसिय- सोदकबिन्दुः। भग० ४६८१ सफेणगावत्त-आवत्तने फेनविनिर्गमो भवति
सफेनकावतः। राज०४९। सबर- शबरः अनार्यविशेषः। भग० १७०| वनचरकः। प्रश्न. १५ शबरः-म्लेच्छविशेषः। प्रश्न०१४। म्लेच्छविशेषः। प्रज्ञा० ५५ सबरनिवंसणियं- शबरनिवसनकं-तमालपत्रम्। उत्त.
भुंजमाणे ३आहाकम्मं च भंजते ४||१|| तत्तो य रायपिंडं ५कीयं ६ पामिच्च ७अभिहडं ८ छेज्जं ९| भुंजते सबले ऊ पच्च-क्खियऽभिक्खभंजइ १०य ।।२।। छम्मासब्भंतरओ गणा-गणं संकमं करेंते ११य। मासब्भंतरतिण्णि य दगलेवा ऊ करेमाणो १३ पाणाइवायउहि कुव्वते १४ मसं वयंते १५य ||४|| गिणहते य अदिन्नं १६ आउट्टि तह अणंतरहियाए। पुढवी य ठाणासेज्जं निसीहियं वावि चेतेइ ।।9। एवं ससणिद्धाए ससरक्खाचित्तमंतसिललेलं। कोलावासपहट्ठा कोल घूणा तेसि आवासो || ६ || संडसपाणसवीओ जाव उसंताणए भवे तहियं। ठाणाइ चेयमाणो सबले आउट्टिआए १७ 3 || ७|| आउट्टि १८ मूलकंदे पुप्फो य फले य बीय-हरिए च। भुजंते सबलेए तहेव संवच्छरस्संतो ।। ८ ।। दस १९ दगलेवे कव्व तहमाइट्ठाण दस य वरिसंतो। २० आउ-ट्टिय सीउदगं वग्घारियहत्थमत्ते य ।। ९ ।। दव्वीह भायणेण व दीयंतं भत्तपाण घेतूणं। भुंजइ २१ सबलो एसो इगवीसो होइ नायव्वो ||१०||" आव०६५५। सबलः-नरके चतुर्थः परमाधार्मिकः। आव० ६५०| सबलः-चतुर्थः परमाधार्मिकः। सूत्र० १२४। सबलः-पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु चतुर्थः। उत्त० ६१४। सबलःसदंष्ट्रदेवकृतोपसर्गनिवारकः। आव. १९९। शब्बलःभल्लः। प्रश्न. ४८। 'सबलेति चावरे' त्ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः स चान्त्रवसालृदयकालेयकादीन्युत्पाटयति वर्णत्तश्च शबलः कर्बुर इत्यर्थः। सम० २९। शबलं-कर्बुरं चारित्रं यैः क्रिया-विशेषेण भवति स शबलस्तद्योगात्सधुरपि। सम० ३९। शबलः-करकर्मकरणादिकः क्रियाविशेषः। आव०६५५ चित्तविचित्तं। निशी०५१ आ। शबलंकर्बरं, द्रव्यतः पटादिभावतः सातिचारं चारित्रम्। स्था. ५११। शबलः-चित्तलः। ओघ० २११। शबलःक्रियाविशेषः। उत्त०६१५ सबलत्त-शबलत्वं-श्वित्रलक्षणं सहजम्। आचा० १२०/ सबलीकरणं- शबलीकरणम्। ओघ० २२५। सव्वभाव- सत्तां भावः सद्भावः-जीवादिस्वरूपम्। आव. ५२७। सद्भावः। परमार्थः। दशवै. ७९। सद्भावः। दशवै. ४२ सद्भावः। आव. २१३। सतो भावः सद्भावः तथ्यः।
१४
सबरी- शबरीः-धात्रिविशेषः। ज्ञाता० ३७। भग० ४६०
शबरी-धात्रिविशेषः। ज्ञाता०४११ सबल- करकर्मकरणादि, शबलभेदाः २१ "तंजह 3 हत्थकम्मं कुव्वते १ मेहणं च सेवंते २ । राई च
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [५]

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