Book Title: Agam Sagar Kosh Part 05
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ (Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-५) [Type text] संस्थिति- तत्पर्यायानुबन्धः। भग० ५८६। सइज्जिआए- सह सखिक्रियया। ओघ०७२। संइह-संहतिः-मिलनम्। भग० १०४। सइज्झिया- प्रातिवेश्मिकी। बृह० २४१ आ। संहणण- संहननं-अस्थिसञ्चयरूपम्। प्रश्न० ८२ सइत्तु-स्वप्तुं-निद्रातिवाहनं कर्तुम्। दशवै० २०४। संहनन-अस्थिबन्धविशेषः। सम० १४९। सइरप्ययारी-स्वैरपचारी स्वच्छन्दविहारी। ज्ञाता०२३६) संहरइ- संहरति-सङ्कोचयति। जीवा० २५५ सइरायार- स्वैराचारः। आव०७१० संहरण-कर्मभूम्यारकर्मभूमिष् नयनम्। जीवा. ५६। सई-स्मरणं-स्मृतिः-पूर्वानुभूतार्थालम्बनः प्रत्ययः। आव. देवादिना अन्यत्र नयनम्। बृह. २२६ अ। १८ सती-स्त्री। ओघ० १४६। सदा। उत्त० २८० संहरत-प्रापयत। जम्बू०१६१| सईणा- तुवरी। भग० २७४। तुवरी। स्था० ३४४। संहरति-संस्थापयति। बृह. ३२ आ। सउज्जोय-सोदयोतंसंहरिय- संहृतं-संलीनीकृतम्। औप०६० बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशनकरम्। प्रज्ञा० ८७ संहरेमाण- संहरन्-अन्यत्र नयन्। भग० २१८१ सउज्जोया- सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते। संहर्षः-स्पर्द्धा। ठा० १५२ स्था० २३२१ संहिच्च-संहित्त्य- सह संभूय। ज्ञाता०९३। सउण- शकुन-श्येनादिपक्षिः। प्रश्न० ३७। शकुनः-पक्षिविसंहिता- अस्खलितपदोच्चारणम्। ओघ० २। शेषः। प्रश्नः । शकुन-श्येनः पक्षिविशेषः। अनुयो. अस्खलितादि-गुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति १३०| शकुनः। ज्ञाता० १२४१ मेघाविनामर्थप्रदाया संनि-कर्षः-सम्यकः सदर्थानां हिता | सउणरुअ-शकुनरुतं, पक्षिभाषितम्। जम्बू. १३६। संहिता। बृह. ४९। सउणा- शकुनाः-काककपोतादयः। बृह० १५२ आ। संहिय-संहितः सन्ततः। सन्ततः-अपान्तरालरहितः। | सउणिज्झया- शकुनिध्वजा-शकुनिचिह्नोपेता ध्वजा। जीवा० २७५। सहिकः क्षमः। जम्बू. ११४| संहितः- जीवा० २१५ मिलितः। आचा० ३०२। संहितः-संयतीभिः युक्तः। सउणिपलीणगसंठित-शकनिप्रलीनकसंस्थितःओघ. ५७ धनिष्ठान-क्षत्रसंस्थानम्। सूर्य. १३०| संहिया- सहिता- चारकसुश्रुतरूपा। ओघ० ५३। संहिता- | सउणी- सकुनी अंगवेदमीमांसान्यायपुराणधर्मशास्त्रवित्। अस्खलितपदोच्चारणम्। अन्यो० २६३। बृह. १८ आ। शकुनिः-अष्टमकरणः। जम्बू० ४९३। सअडिय-सास्थिकं सहास्थिः । आचा० ३४७) शकुनी-चतुर्दश विद्यास्थानानि। आव० ५२०| शकुनी। सई-सकृद्-एकां वाराम्। ओघ० ११८ सकृत्-एकैकं ज्ञाता०२०८१ वारम्। सूर्य. ११। सकृत्-एकमेव। उत्त. २३९। स्वयं | सउणीघरए- शनिगृहं-वंशनिर्मितं छब्बकम्। ओघ. स्वभावेन। स्था०६३। सरय। बृह. १९० आ। पटमवारा। | १८४ निशी० २१८ अ। सुखलक्षणफलबलता। ज्ञाता० १६२। सउत्तिंग-सचित्तवती। सम० ३९। संइगाल-सागारं प्रशंसाहभोजनम्। पिण्ड. १७५ आचा. सउलिया- कुलिकाभिः सह वर्तमाना शनि वा। अन्यो. १३१| सउवयार- जेसिं आगयाणं उवयारो कीरइ ते। निशी० २०८ सइ-स्मृतिः- उपयोगलक्षणा। आव० ८३४। बहुफलत्वम्। । औप०७४। सन्। दशवै० १२५। बहुः। भग० ४८२। सत्- | सउववारा- सोपचाराः-त्रिषु स्थानेषु प्रयुक्तनैषेधिकी विद्यमानम्। ओघ०५१। स्मृतिः। उपा०९। शब्दः। यद्वा संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण उपचारः सइअकरणा- स्मृत्यकरणं प्रयुक्तस्ते सोपचाराः। बृह० २११ अ। उपयोगलक्षणास्मृतेरनासेवनम्। आव० ८३४। सऊणरुय-कलाविशेषः ज्ञाता० ३८५ सइओ-शतिकः। दशवै. १०८ सएज्जए- सहवासी- प्रातिवेश्मिकः। बृह. १६४ अ। सइकाल-सत्कालः-देसकालः-ब्रह. २०६अ। | सएज्झियाओ- सख्यः। आव० ३५३। मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [35] "आगम-सागर-कोषः" [१]

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169