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आचारांगभाष्यम् दुक्खाणमेव आवट्ठे अणुपरियट्टइ।" अत एवोक्तम्- वर्तन करता है । इसीलिए कहा है-दुःख के अग्र और मूल का दुःखस्य अग्रं मूलं च जानीहि-'अग्गं च मूलं च विगिच विवेक करो। धीरे।
कषायमूलानि दुःखानि इत्युक्तमेव । सूत्रकारेण दुःखों का मूल है कषाय'—यह पहले कहा जा चुका है। आरम्भोऽपि दुःखोत्पत्तिहेतुरुक्तः-'आरंभजं दुक्ख मिणति सूत्रकार ने आरंभ-हिंसा को भी दुःख की उत्पत्ति का हेतु बतलाया णच्चा। दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति–'ते है। जैसे--'दुःख हिंसा से उत्पन्न है ।' 'कुशल पुरुष दुःख की परिज्ञा सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति ।। का प्रतिपादन करते हैं।' दुःखक्षय के लिए कर्म शरीर का प्रकंपन दुःखक्षयाय आवश्यकमस्ति कर्मशरीरस्य प्रकम्पनम्
आवश्यक है। धूणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ।" 'मुणी मोणं समादाय धुणे कम्म-सरीरगं।" तस्य इमे उपायाः
कर्म-शरीर को क्षीण करने के ये उपाय हैंप्रथमः-अप्रमाद:-'एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति पहला उपाय है-अप्रमाद-प्रमाद से किए हुए कम-बंध का विलय वेयवी।''धीरे मुहत्तमवि णो पमायए।"
अप्रमाद से होता है-- सूत्रकार ने ऐसा कहा है।'
'धीर पुरुष मुहूर्त्तमात्र भी प्रमाद न करे ।' द्वितीयः-आत्मसंप्रेक्षा-'एगमप्पाणं संपेहाए।" दूसरा उपाय है-आत्म-संप्रेक्षा-'एक आत्मा की ही संप्रेक्षा
करे।' तृतीयः-एकत्वानुप्रेक्षा-'एगो अहमसि, न मे अस्थि तीसरा उपाय है-एकत्व-अनुप्रेक्षा-'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं, कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगागिणमेव
मैं भी किसी का नहीं हूं। इस प्रकार वह भिक्षु अप्पाणं समभिजाणिज्जा ।' 'ण महं अत्थित्ति
अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करे।' इति एगोहमंसि ।'
'मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।' चतुर्थः----अशरणानुप्रेक्षा-'नालं ते तव ताणाए वा, चौथा उपाय है-अशरण-अनुप्रेक्षा—'हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें सरणाए वा । तुम पि तेसिं नालं ताणाए वा,
श्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी सरणाए वा ।"
उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।' पञ्चमः—अनित्यानुप्रेक्षा-'आहारोवचया देहा, पांचवां उपाय है-अनित्य-अनुप्रेक्षा-'शरीर आहार से उपचित परिसह-पभंगुरा ।3 'से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं
होते हैं और वे कष्ट से भग्न हो जाते हैं।' भेउर-धम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं,
'तुम इस शरीर को देखो । यह पहले या पीछे एक असासयं, चयावचइयं, विपरिणाम-धम्म पासह
दिन अवश्य ही छूट जाएगा। विनाश और विध्वंस एवं रूवं ।१४
इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता
है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं।' षष्ठः-शरीरसंप्रेक्षा-'जे इमस्स विग्गहस्स अयं छठा उपाय है-शरीर-संप्रेक्षा-'इस औदारिक शरीर का यह खणेत्ति मन्नेसी।'१५
वर्तमान क्षण है, इस प्रकार जो अन्वेषण करता है,
वह सदा अप्रमत्त होता है।' सप्तमः-लोकविपश्यना-'आयतचक्खू लोगविपस्सी, सातवां उपाय है-लोक-विपश्यना—'संयतचक्षु व्यक्ति लोकदर्शी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उडढं भागं जाणइ,
होता है। वह लोक के मधो भाग को जानता है, १. आयारो, २०७४ । ६. वही, २।१६३ ।
११. वही, ६।३८ । २. वही, ३३४ । ७. वही ५१७४।
१२. वही, २।८। ३. वही, ४१२९ । ८. वही, २॥११॥
१३. वही, ८.३५ । ४. वही, ४॥३०॥ ९. वही, ४१३२।
१४. वही, २२९ । ५. वही, ४॥३२॥ १०. वही, ८।९७।।
१५. वही, ५।२१।
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