________________
हिंदी-भाव सहित ( प्रस्तावना )। बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुताऽस्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोस्तु गुरुः सताम् ॥ ६॥
अर्थः-जिसको शास्त्रका पूर्ण ज्ञान ही, जिसकी मन वचन कायसंबंधी सारी प्रवृत्तियाँ शुद्ध हों - अनिंदित हो, दूसरोंका उद्धार करना अपना कर्तव्य समझकर जो दूसरोंको शिक्षा देनेमें सदा तत्पर हो, जैन शासनके अनुसार निर्दोष प्रवृत्ति करानेके लिये जो असकृत् कटिबद्ध रहता हो, बडे बडे विद्वान् जिसका आदर करते हों । एवं आप भी विद्वानोंका विनय, सत्कार, उनसे प्रेम करनेवाला हो-उद्धत न हो, जिसको लोकरीतिका ज्ञान हो, जिसके परिणाम कोमल हों, जो स्वयं वांछारहित हो, इसी प्रकार और भी आचार्यपदके योग्य और उपदेशके साधक अनेक श्रेष्ठ गुण जिसमें पाये जाते हों वही सत्पुरुषोंका उपदेशक गुरु होसकता है । ऊपर कहे हुए इन गुणोंसे जो शून्य होगा वह सच्चा उपदेष्टा नहीं बनसकता।
इससे पहलेके श्लोकमें जो वक्ताके गुण कहे हैं एक दो विशेषण कम अधिक वे ही गुण इस श्लोकमें भी कहेगये हैं, परंतु कथनशैली निराली है । इसीलिये इस श्लोकका रहस्य भी पहलेसे निराला है । अथवा दूसरे वार भी वे विशेषण कहनेसे वक्ताका यह अभिप्राय समझना चाहिहे कि जो विशेषण दूसरे वार कहे गये हैं बे वक्तामें अवश्य चाहिये, उनकी अधिक आवश्यकता है; और जो विशेषण एक वार ही कहे गये हैं वे कदाचित् किसी वक्तामें अव्यक्त भी हो, तो भी वह वक्तृत्व पदके योग्य होसकता है । जैसे लोकमर्यादाका जानना, मिष्टाक्षर या मृदुता, आशारहित या अस्पृहा, शुद्ध वृत्ति या प्रशमवान् , पूर्ण श्रुतज्ञान वा समस्तशास्त्रहृदयवेत्ता, ये सर्व विशेषण ऐसे हैं कि इनके विना उपदेशका काम ही नहीं चल सकता है । इसीलिये इनको दो दो वार कहकर इन गुणोंकी आवश्यकता अधिक दिखाईगई है। वाकी परमनोहारी