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आत्मानुशासन लाभ होनेकी आशा रखता हो वह श्रोताओंके मनचाहा उपदेश ही देगा, यथार्थ कैसे कह सकता है? जो प्रतिभाशाली न हो वह देशकालके अनुसार तथा प्रसंगानुसार कल्पना उठाकर सच्चा निर्बाध उपदेश कैसे दे सकता है ? अथवा कांति विना श्रोताओंपर प्रभाव कैसे पड़ सकता है? जो शांतस्वरूप नहीं हो उससे श्रोता पूछनेको उत्सुक कैसे हो सकेगा? एवं क्रोधीके मुखका उपदेश लोगोंपर कुछ असर भी नहीं कर सकता है। जो नवीन नवीन प्रश्नोंका उत्तर पहलेसे ही नहीं जानता हो, वह श्रोताओंके प्रश्न करनेपर उनको तत्काल क्या संतुष्ट कर सकता है? जो प्रश्न करनेपर अप्रसन्न हो जाता हो उससे श्रोता निर्भय होकर यथेष्ट प्रश्न कैसे करसकेगा ? और इसीलिये श्रोताओंका संदेह भी किस प्रकार दूर होगा ? जो श्रोताओंसे ऊँचे पदपर रहनेवाला नहीं, है, उस वक्ताका उपदेश श्रोता सर्वथा कैसे मानेगा? जो दूसरोंके चित्तका आकर्षण करनेवाला न हो उसके कहनेकी तरफ श्रोता क्यों ध्यान रक्खेंगे? जो दूसरोंकी निंदा करता है वह चाहें वक्ता हो अथवा और कोई हो, उसको जनसाधारण घृणाकी दृष्टिसे देखने लगजाते हैं; और अतएव उस वक्ताका उपदेश कोई भी रुचिपूर्वक नहीं सुनता । एवं जो स्वयं निंद्य हो उसका वचन भी लोग आदरपूर्वक धारण नहीं करते । जो अनेक गुणोंका पात्र न हो उसके कहनेमात्रका श्रोताओंपर क्या असर पड़ सकता है? एवं गुण रहित मनुष्यका स्वामीपना भी शोभित नहीं होसकता और न उसके स्वामी होनेसे स्वामित्वका असर ही पड सकता है। जो वक्ता स्पष्ट वचन नहीं बोलता, उसका अभिप्राय पूरा समझमें नहीं आसकता है। जो मिष्टभाषी नहीं हो उसका उपदेश सुननेके लिये श्रोताओंको रुचि उत्पन्न नहीं होसकती । एवं,
श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, . परिणतिरुरूद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ ।