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आत्मानुशासन.
किसी दूसरी चीजका मेल भी नहीं माना जाता, वह सुवर्ण पूरा शुद्ध माननेमें आता है । इसी प्रकार जब कि आत्माकं सुख शांती तथा ज्ञानादिक खास स्वभाव हैं तो उनके कम अधिक होनेसे या विपरीत होनेसे उनके विघातक दूसरे विजातीय कारणों का मेल होना भी उस समयके आत्मामें मानना मुनासिव है। संसारवर्ती जीवोंमें सुख-शांती तथा ज्ञान, ये गुण पूरे पूरे प्रकाशमान नहीं रहते या विपरीत रहते हैं यह बात बहुत ही सरलताके साथ जानी जासकती है। क्योंकि, संसारका सुख है वह आकुलता तथा इष्टवियोगादि दुःखोंसे पूरित रहता है, शांतिका भी भंग इससे होता ही रहता है। ज्ञान सभी जीवोंके परस्पर निरनिराले तथा हीनाधिक रहते दीखते हैं । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि खानमेंसे तत्काल निकले हुए सुवर्णकी तरह संसारवर्ती जीव भी पूरा स्वच्छ निर्मल नहीं है । तो ? अग्निसे जैसे वह सुवर्ण शुद्ध होता है वैसे ही जीवकी भी बाह्य तपसे बाह्य शुद्धि तथा अंतर तपसे अंतर शुद्धि होसकती है।
इस तपके करनेमें कष्ट जान पडता है, पर किनको ! उन्हीको कि जो अज्ञानी हैं-आत्माकी अशुद्ध अवस्थाका जिन्हें ज्ञान नहीं हुआ है। जो सुवर्णके परीक्षक नहीं हैं उन्हें सुवर्णको अनिमें तपाना व्यर्थकी दिक्कत जान पडेगी, पर जो परीक्षक हैं वे कभी उसको व्यर्थकी दिक्कत नहीं मानेगे। इसी प्रकार संसारवर्ती जीवकी अशुद्धतापर जिनका विश्वास नहीं हैं वे इस तपको चाहें व्यर्थकी दिक्कत समझें, पर जो इसके परीक्षक हैं-ज्ञानी हैं वे, उसे व्यर्थकी दिक्कत कभी नहीं मानेगे। जिससे उत्तर कालमें अनुपम लाभ होनेवाला हो उस कामको समझदार क्यो दिक्कतका मानने लगे ? फिर भी बाह्य तप या उपवासादि अंतरके कुछ तप चाहें थोडी दिक्कतके हों पर, जिससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होसकती है ऐसे समाधितपमें तो दिक्कत है ही नहीं। वहां जितना देखो उतना आनंद ही भानंद ।