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हिंदी-भाव सहित ( सच्ची ज्ञानभावना)। १८३ और ढीला करनेसे भी बल पड़ते हैं। भ्रमण उसका तभी बंद होगा जब कि उसमेंसे रस्सीको विलकुल निकालकर अलग करदिया जाय । यही उपाय जीवके छूटनेका है । यही बात आगे कहते हैं । देखोः
मुच्यमानेन पाशेन भ्रान्तिर्बन्धश्च मन्थवत् । जन्तोस्तथासौ मोक्तव्यो येनाभ्रान्तिरबन्धनम् ॥१७९॥
अर्थः-जीवमें यदि रागद्वेष बने हों तो कर्मबंधनके छूटते समय भी रागद्वेषके वशीभूत होनेके कारण भवभ्रमण तथा नवीन कर्मबंधन होता ही रहेगा। अर्थात्, कर्मबंधनोंका छूटना ही केवल कल्याणकारी नहीं है। क्योंकि, रागद्वेषके रहते हुए एक कर्मके छूटते ही दूसरा कर्मबंधन जकड जाता है । इसलिये वह छूटना किसी कामका नहीं है। इसलिये यदि वास्तविक कर्मबंधनसे छूटना हो तो ऐसी तरहसे उसे छोडना चाहिये जिससे कि भवभ्रमण व नवीन कर्मबंधन होना रुक जाय। उसका एकमात्र यही प्रकार है कि रागद्वेष हटाकर पूर्व कर्मोकी निर्जरा की जाय । नहीं तो ' तदन्धरज्जुबलनं स्नानं गजस्याथ वा ' इस पूर्वोक्तिके अनुसार सदा ही जीव दुःखी व कर्मपरतन्त्र रहेगा। क्यों:
रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोर्बन्धः प्रवृत्त्यवृत्तिभ्याम् । तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ॥१८०॥
अर्थ:-जबतक रागद्वेष हैं तबतक जीवकी कुल प्रवृत्ति व निवृत्ति संसारके विषयोंमें ही रहेगी। और इसीलिये तबतक कर्मबंध होता ही रहेगा। किंतु रागद्वेष छूटजाकर शुद्ध हुए तत्त्वज्ञानद्वारा जो प्रवृत्ति व निवृत्ति होगी वह कुल आत्माको लक्ष्य बनाकर होगी। इसलिये उस प्रवृत्तिसे भी कर्मबंधन छूटेगा और निवृत्तिसे भी छूटेगा । प्रवृत्ति हुई तो आत्मचिंतवनमें या आत्माकी अद्भुत चेतनादि शक्तियोंकी महिमा विचारनेमें होगी। यदि निवृत्ति हुई तो अध्यात्मभावनामें आड आनेवाले विषयोंसे होगी। पर ये दोनों ही शुद्ध विचारके बढानेवाली बातें हैं ।