Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 227
________________ २०२. आत्मानुशासन. भावार्थ-इसी प्रकार रोग होनेपर जो उसे दूर करदेना ही अपना चरमसीमाका कर्तव्य समझते हैं वे अज्ञानी हैं। असली कर्तव्य यह होना चाहिये कि जिसके रहनेसे रोग उत्पन्न होनेकी शंका कायम है उसका निर्मूल नाश करै । रोग होते हैं शरीरके रहनेसे । वस, शरीरके नाश करनेमें लक्ष्य रखना ही बुद्धिमानी है । रोग सुगमतासे दूर हुआ तो ठीक, नहीं तो शरीर छूटते भी समता धारण करनी चाहिये । देखो: यावदस्ति प्रतीकारस्तावत् कुर्यात्प्रतिक्रियाम् । तथाप्यनुपशान्तानामनुद्वेगः प्रतिक्रिया ॥ २० ॥ अर्थः--- उत्पन्न हुए रोगोंका जबतक उपाय होना शक्य हो तबतक करो । यदि उपाय करनेपर भी रोग दूर न हों तो शांतता रखना ही प्रतीकार समझो । क्योंकि, उद्वेग न करनेसे एक दिन शरीरका बीज ही नष्ट हो जायगा जिससे कि सारे रोग सदाकेलिये हट सकते हैं । तुम यह विचार कभी मत करो कि रोग होनेपर उसे हम मान मर्यादा न रखकर जैसे बनै वैसे दूर करनेमें लगें। यदि तुह्मारा संयम मलिन होगया तो रोग दूर हुआ तो भी व्यर्थ है । क्योंकि, शरीर जहांतक है वहांतक दुःख हैं ही। इसलिये शरीर ही तोडनेका मुख्य यत्न करो । देखो, नीचे क्या कहते हैं ? यदादाय भवेजन्मी त्यक्त्वा मुक्तो भविष्यति। शरीरमेव तत्याज्यं किं शेषैः क्षुद्रकल्पनैः ॥२०८ ॥ अर्थः-जिसके स्वीकार करनेसे जीवको संसारी बनना पडता है और जिसे छोड देनेसे जीव संसारके दुःखोंसे मुक्त होसकता है, वह एक मात्र मुख्य शरीर ही है । तो फिर उस शरीरको ही ऐसी तरहसे छोडना चाहिये कि फिर उसका अपनेको संबंध न हो पावै । वाकी छोटी छोटी बातोंकी तरफ ध्यान देनेसे क्या लाभ है ?

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