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मात्मानुशासन.
काकी रहना, चक्रवर्तीके सर्वोपरि सुखके समान अपूर्व दीख पडता है । उनका मरण होने लगा तो वे मनवांछित लाभके समान समझते हैं । लाभान्तरायादि घाति कर्मोंके क्षयोपशमसे यदि कभी सुखसंयोग होता दीखा तो उसे वे मोक्षविघातक विघ्न समझकर दुःख मानते हैं । संसारके विषयसुख जैसे जैसे छूटते जाते हैं वैसा ही वैसा उन्हें आनंद होता है। परोपकार करनेमें वे सर्वस्व गमादेनेको भी बड़ा भारी आनंद मानते हैं। और तो क्या, प्राण भी चले जाय तो परवाह नहीं । अथवा सर्वत्याग करके जब जैनेश्वरी दीक्षा ली जाती है तब जैसे अतीव उत्सव या आनंद होता है वैसे ही प्राणनाश होते उन्हें आनंद होता है । जिनकी यह भावना हो चुकी है उन्हें कैसा ही दुःखका प्रसंग क्यों न प्राप्त हो परंतु वे दुःख न मानकर सुख ही उसे मानते हैं । ठीक ही है, इष्टानिष्टकी जब भावना ही नहीं रही तो ऐसा कौनसा प्रसंग है जो उन्हें सुखमय न भासता हो ? इसीलिये साधु-जन सदा सुखी रहते हैं ऐसा कहना सर्वथा सत्य है। भावार्थ, जब कि मोह नहीं रहा तो चाहें जैसा दुःखका प्रसंग आवै पर उन्हें दुःख नहीं होता । कारण ?
आकृष्योग्रतपोबलैरुदयगोपुच्छं यदानीयते, तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः । यातव्यो विजिगीषुणा यदि भवेदारम्भकोरिः स्वयं, वृद्धिः प्रत्युत नेतुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ॥ २५७॥
अर्थः-पूर्वबद्ध कर्म जबतक प्रगट न हो तबतक दुःखका होना संभव नहीं है। और योगी-जन कर्मोंका नाश करनेमें ऐसे दत्तचित्त होते हैं कि जो कर्म अपने आप आकर प्रगट नहीं होते उन्हें भी वे उग्र तपोबलसे खींचकर सामने लाते हैं और नष्ट करते जाते हैं। जब कि यह बात है तो जो कर्म अपने आप ही प्रगट होकर दुःख देनेकेलिये तत्पर होते हैं उन्हें तो वे योगी बहुत ही प्रसन्नताके साथ भस्म कर