Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 263
________________ २३८ आत्मानुशासन. तपश्चर्याकेलिये कुछ सहाईसा मानते हैं। परंतु तो भी उसके संबंधको लजाका कारण समझ रहे हैं। इसीलिये वे महात्मा सदा पल्यङ्क-आसन बांधकर इस बात का विचार करते बैठते हैं कि इस शरीरका किस प्रकार नाश हो । हम शरीरके नाशका उपाय वास्तविक ढूंढकर निकालें ऐसा विचार कर वे योगी कभी पर्वतोंमें, कभी जंगलों में और कभी गुफा ओंमें-ऐसे शांत एकांत स्थानोंमें जाकर ध्यान रखते हैं। अपने मुख्य कार्यको कभी विसरते नहीं हैं । मोहका नाश हो जानेसे वे सदा ही अपनी सिद्धि करनेमें तयार रहते हैं। ऐसे महात्मा अपनी सिद्धि तो करते ही हैं किंतु दूसरोंके भी कल्याणकर्ता बनते हैं । देखो: येषां भूषणमङ्गसङ्गत्तरजः स्थानं शिलायास्तलं, शय्या शर्करिला मही सुविहितं गेहं गुहा द्वीपिनाम् । आत्मात्मीयविकल्पवीतमतयस्त्रव्यत्तमोग्रन्थय,स्ते नो ज्ञानधना मनांसि पुनतां मुक्तिस्पृहा निःस्पृहाः ॥२५९॥ अर्थः-सारे शरीरमें लगी हुई धूल जिनकी शोभा बढा रही है। जिन्होंने पत्थरोंके शिलातलको ठहरनेका स्थान बनाया है । जि. न्होंने सोनेकेलिये शय्या, ककरीली भूमिको बनाया है। जो व्याघ्रादि भयंकर जंतुओंके रहनेकी गुफाओंको अपना रहनेका घर समझते हैं । शरीरको अपना और आत्माको शरीरमय माननेकी मिथ्या वासना जिनके हृदयसे निकलगई है । अज्ञानान्धकारकी गांठ हृदयसे खुल चुकी है। जो आत्माको केवल संसारसे मुक्त करनेके अभिलाषी हैं; किंतु शेष सर्व अभिलाषा नष्ट कर चुके हैं। जिन्होंने केवल ज्ञानको ही अपना सर्वस्व समझ रक्खा है । ऐसे योगीश्वर हमारे मनको वीतराग बनाकर पवित्र करो । देखो, और भी उनकी महिमाः दूगरूढतपोनुभावजानितज्योतिःसमुत्सर्पणै,रन्तस्तत्वमदः कथं कथमपि प्राप्य प्रसादं गताः। विश्रब्धं हरिणीविगेलनयनैरापीयमाना वने, धन्यास्ते गमयन्त्यचिन्त्यचरितै(राश्चिरं वासरान् ॥२६॥ न्होंने तुओं के रहनेकी PHको शरीरमय मागाठ हृदयसे खुल चुका

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