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आत्मानुशासन. होनेवाले छोटे बडे शरीरके बराबर रहता है। मुक्त होते समय कोई कोई जीव क्षणमात्रकेलिये लोकव्याप्त भी होता है परंतु फिर वह तत्काल सकुडकर शरीरमात्र ही हो जाता है । मुक्त होते समय जीवके साथके कर्मादि सारे मल दूर हो जाते हैं और वह ऊपरकी तरफ लोकके अंतमें जाकर ठहरता है। वह वहां ऐसा ठहरता है कि फिर कभी वहांसे विचलित नहीं होता। उस समय इसी जीवको लोग प्रभु, स्वामी, ईश्वर, परमात्मा कहने लगते हैं। ठीक ही है, इससे अब अधिक वैभवशाली व नित्यसुखी दूसरा कौन है ?
यहां जो अवस्था तथा अपेक्षाके भेदसे जीवके विशेषण बताये हैं वे सांख्यादि मतोंके निषेधार्थ हैं । सांख्यादि मतोंके अनुसार जीवका स्वरूप संभव नहीं होता और ऐसा स्वरूप युक्तियोंसे ठीक बैठता है। १ अकर्ता निर्गुणः शुद्धो नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । भमूर्तश्चेतनो भोक्त्ता आत्मा कपिलशासने ॥
( यह सांख्यमत ). दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नैवावनीं गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ . दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नवावनी गच्छति नान्तरिक्षम् । जीवस्तथा निवृतिमभ्युपेतः क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ :
. (यह बौद्धमत ). सदाशिवः सदाकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोजितम् । मस्करी किल मुक्तात्मा मन्यते पुनरागतिम् ॥ क्षणिकं निर्गुणं चैव बुद्धो योगश्च मन्यते । कृतकृत्यं तमीशानो मण्डली चोर्ध्वगामिनम् ॥
( यह अनेक मतसंग्रह ). अष्टविधकर्मविकलाः शीतीभूता निरञ्जना नित्याः। अष्टगुणाः कृतकृत्या लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥
(स्वमत ).