Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 274
________________ प्रथम श्लोकमें विशेष वक्तव्यः अर्थ:-गुणभद्रस्वामी कहते हैं, कि अनंत ज्ञानादि-आत्मस्वभावरूप तथा छत्रचामरादि बाहिरी अतिशयस्वरूप अपूर्व लक्ष्मीके धारी, पापोंका नाश करने वाले श्रीवीरनाथ स्वामी चौबीसवें तीर्थकरको अथवा कर्मशत्रुओंके विनाशक योद्धाको या विशिष्ट लक्ष्मी के उत्पन्न करनेवाले सर्व अरहंत आदिक परमेष्टिणको अपने हृदय में धारण करके आत्मानुशा. सन नामक ग्रंथको लिखता हूँ जिससे कि प्रतिबोध पाकर भव्य जीवोंको संसारदुःखोंसे छुटकारा हो। विशेषः-वीर शव्दके जो दो विशेषग दिये हैं वे दोनो वीरशब्दसे भी सूचित होते हैं। पहला. विशेषण लक्ष्मीनिवासनिलय है। यह विशेषण वीर शब्दके विxxx, ऐसे टुकडे कानेसे निकल आता है, क्योंकि, 'वि' नाम विशिष्ट या अपूर्वका है । और 'ई' लक्ष्मीको कहते हैं। 'रा' धातुका देना अर्थ है, इसलिये 'र' का अर्थ देनेबाला है। और देता वही है कि जिसके पास हो । इस प्रकार मिलानेपर वीर शब्दका अर्थ 'अपूर्व लक्ष्मीके धारण करने वाले' ऐसा होता है । दूसरा विशेषण 'विलीनविलय' है। अर्थात् जिसके विलय नाम पाप, विलीन होबके हैं । इस विशेषणकी सिद्धि वीर शब्दसे तय होसकती है जा कि वीर शब्दका अर्थ शत्रुओंका जीतनेवाला शूर ऐसा माना जाय; क्योंकि बीरस्वामीने भी कर्मशत्रुओंका सर्वथा नाश करके उनसे विजय प्राप्त की है। ऐसे दो अर्थ माननेपर 'वीर' शब्द विशेषणरूप हो जाता है। भौर विशेष्य अर्थके समय यह शब्द चौवीसमें तीर्थकरका वाचक है। जब यह शब्द विशेषण मानलिया जाता है तब इसका अर्थ भरहंत आदिक पांचों परमेष्ठी होसकता है। और इसीलिये पांचों परमेष्ठियोंको इस श्लोकसे नमस्कार होना सूचित होता है । जब कि इसको विशेष्य मानलिया जाय तो इससे वीरनाथ भगवान्को नमस्कार हो

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