Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 276
________________ इस लोकमें जो मंगल किया है, वह इष्ट देवको नमस्कार करनेसे तो सष्ट सूचित होता ही है किंतु 'लक्ष्मी' इस कल्याणवाची शब्दके प्रथम उच्चारणसे भी वह मंगल सिद्ध होता है । संसारी जीव लक्ष्मीसे सर्व सुखकी प्राप्ति होना सुलभ समझते हैं। इसीलिये भगवान्को सबसे प्रथम लक्ष्मीनिवासनिलय बताया है जिससे कि श्रोता जन मग. वानको सुखोत्पत्ति करनेकेलिये समर्थ समझें । ____ भगवद्गुणभद्र स्वामीने प्रथम मंगलमें महावीर स्वामी अंतिम तीर्थकरको हृदयमें धारण किया है और अंतिम मंगलमें प्रथम तीर्थकरका स्मरण किया है। इससे यह व्यङ्गय अर्थ निकल सकता है कि जैसे ही कोई इस ग्रंथका अध्ययन समाप्त करेगा वैसे ही उसकेलिये उत्सर्पिणीके प्रथम तीर्थकरकी उत्पत्तिका समय आकर प्राप्त होगा । अर्थात् इस अं. थका अध्ययन करनेवाला पुरुष शीघ्र ही सुख-शांतिके सर्वोत्कृष्ट समयमें नाकर प्रवेश करेगा। अथवा, इस ग्रंथका अध्ययन करनेसे पहिले जिसका आत्मा अत्यंत पतित होगा वह भी अध्ययन समाप्त करते ही परमात्मा बनजायगा । क्योंकि सम्यग् ज्ञान ही इष्टप्राप्तिका मुख्य उपाय मानागया है। परीक्षामुखके प्रारंभमें 'प्रमाणादिष्टसंसिदिः' ऐसा कहा है। अर्थात्, प्रमाणसे ही इष्टसिद्धि होती है । यद्यपि प्रयत्न-विना ज्ञानमात्रसे कार्यासद्धि नहीं होती तो भी सम्यग्ज्ञान होनेपर प्रयत्न हुए विना रहता नहीं है । इसलिये ग्रंथका अध्ययन या ज्ञान भी इष्टका साधक कहा जा सकता है । अथवा, जब कि इस ग्रंथका उपदेश सुननेको मिलेगा तो श्रोता मनुष्य अवश्य ही हिताहितप्राप्तिपरिहारमें लगेगा । इसलिये मनुष्यको परमहित प्राप्त होनेमें यह ग्रंथ निदानकारण अवश्य मानना चाहिये। इस मतमें प्राय विद्वानोंका विवाद न होगा कि आदि तीर्थकर के समयमें जैसा कुछ कल्याणका साधन करना सुगम पडता था वैसा भाज या श्री. महावीर स्वामीके समय नहीं रहा। इसीलिये जो धर्मो

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