Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 271
________________ २४६ आत्मानुशासन. हुए योगीश्वरोंके चित्तको यह ग्रंथ आनंददायक होगा । इस ग्रंथ में जो वर्णन किया है वह सर्वथा उचित है । अर्थात्, इसी प्रकार जो योगीश्वर अपनी चर्या रखते हैं वे अवश्य आत्मसिद्धिको पाते हैं । पूर्वाचार्यों ने भी इसी प्रकार आत्मसिद्धिका उपाय आजतक वर्णन किया है । इस ग्रंथका विषय क्या है, इस प्रश्नका उत्तर स्वयं ग्रंथकारने प्रारंभ में दिया है, कि 'आत्माके शुद्ध होनेकी शिक्षा इस ग्रंथ में मैं कहूंगा'। उस शिक्षाको चार विभागों में विभक्त किया है। वे चार विभाग : - ( १ ) सम्यग्दर्शनाराधना, (२) ज्ञानाराधना, (३) चारित्राराधना, ( ४ ) तप आराधना । इन्ही चार आराधनाओंका वर्णन क्रमसे इस ग्रंथमें प्रतिज्ञानुसार किया है । जिस प्रकार इस ग्रंथ में वर्णन किया है यदि उसी प्रकार कोई इसका पूर्ण चितवन कुछ समयतक निरंतर अपने मनमें करता जाय तो संभव है कि वह अवश्य संसारकी विपदाओंसे छूटकर मुक्ति अनुपम ऐश्वर्यको प्राप्त होगा । जो योगीश्वर मुक्ति पाते हैं वे ऐसा ही आराधन करनेसे पाते हैं, अन्यथा नहीं; यह निश्चय समझना चाहिये । ग्रंथकार इस ग्रंथ करने का यही फल समझते हुए मोक्षार्थियों को आशीर्वाद देते हैं कि ' इस ग्रंथके अनुसार अंतिम तप आराधना में जो पहुचकर प्रवृत्त होनेवाले हैं वे अवश्य व शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मीका आश्रय करो । ग्रंथकार गुरुका व अपना नाम दिखाते हैं:जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीन चेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ।। २६९ ॥ अर्थ :- अपने गुरु श्री. जिनसेनाचार्य के चरणोंका मनमें सदा चितवन करनेवाले श्री गुणभद्राचार्यने यह आत्मानुशासन ग्रंथ बनाया है । भावार्थ: - इस ग्रंथके कर्ता ज्ञानी विरागी तथा अनेक गुणों से पूज्य हैं इसलिये उनकी कृति भी आदरयोग्य है । १' आत्मानुशासनमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ॥

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