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हिंदी-भाव सहित (योगियोंका स्वरूप)। २३९
अर्थः-जो योगी अपने सातिशय तपके प्रभावसे ज्ञान-ज्योतिका प्रकाश कर चुके हैं और उस ज्योतिके जो किरण पसरे हैं उनके द्वारा इस वास्तविक अंतर्गत आत्मतत्त्वको पहिचान चुके हैं । वे ही योगी सच्चे आनंदमें मग्न होनेवाले हैं। उस आत्मानंदमें वे ऐसे तत्पर हो चुके हैं कि उनकी परम शांत मुद्राको चंचल नेत्रवाली वनों में विचरनेवाली हरिणी भी निर्भयताके साथ देखकर मस्त हो उठती हैं। धन्य वे धीर योगीश्वर ! इस प्रकार अद्भुत चर्यासे अपने दिनोंको विताते हैं ।
भावार्थ-जो आत्मतत्व संसारी जनोंके स्वप्नगोचर भी नहीं हुआ वह जिन्होंने साक्षात् पालिया है ऐसे असाधारण एक महिमाके स्वामी योगीश्वर धन्य हैं । जिनके आत्मतत्त्व पानेका परिचय जंगलकी अति चंचल हरिणी भी देरही हैं । हरिणियोंका इतना चंचल व भययुक्त स्वभाव होता है कि वे मनुयको देखते ही दूर भाग जाती हैं । परंतु जो अन्तरात्माका प्रत्यक्ष ज्ञान होनेसे परम वीतरागी बनचुके हैं और जि. नकी परम वीतराग चेष्टा ऊपर झलकने लगी है उन योगीश्वरोंके दर्शनसे कौन भला, दूर भागेगा ? अहो, जिनकी आत्मनिष्ठाके बलसे सिंहा. दिक क्रूर जीव भी अपनी दुष्टता भूल जाते हैं उनके दर्शनसे भय कैसा? उन्हें जो देखै उसे आनंद ही आनंद प्राप्त होता है । यह उनके आत्मप्रत्यक्ष होनेकी महिमा है । देखो, और भी उन्हींकी महिमाः
येषां बुद्धिरलक्ष्यमाणभिदयोराशात्मनोरन्तरं, गत्त्वोच्चैरविधाय भेदमनयोरारान्न विश्राम्यति । यैरन्तर्विनिवेशिताः शमधनैर्वादं बहिर्याप्तय,स्तेषां नोत्र पवित्रयन्तु परमाः पादोज्झितः पांशवः ॥२६१॥
अर्थः- विषयाशा तथा आत्मा, इन दोनोंका ही ज्ञान होना काठन है । विषयोंकी आशा जहां देखो वहां ही जाज्वल्यमान दीख पडती है। शुद्ध आत्माका अनुभव संसार-दशामें कभी कहीं भी दीख नहीं पाता । इसीलिये संसारी जन स्वानुभूत कामविकारोंको ही आत्मा या