Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 265
________________ आत्मानुशासन. आत्मलक्षण समझ बैठते हैं । परंतु इस विषयाशा तथा आत्माके परस्पर दुर्लक्ष्य भेदको जबतक पूरा समझ नहीं पाया तबतक जिन्होंने थककर अधवीचमें ही अपनी बुद्धिको हटाया नहीं; किंतु जो सतत श्रम करते ही रहे । और अंतमें उस शुद्ध आत्माको जिन्होंने वास्तविक समझ ही लिया । अत एव जिनका मन बाह्य विषयोंमेंसे हटकर आत्मस्वरूपके परमानंद भोगनेमें लीन होगया है। जिन्होंने परम शांतताको ही अपना सर्वस्व समझ रक्खा है । जगमें उन योगीश्वरोंके चरणोंसे झडकर गिरी हुई परम-पवित्र धूल हमको पवित्र करै । भावार्थ, ऐसे योगीश्वरोंकी चरणरज हमारा निस्तार करनेवाली हो । और उन योगियोंके चरणोंका हमें सदा ही सहवास प्राप्त हो। संसारी जनोंसे उनकी अपूर्वताःयत् प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं, तदैवं तदुदीरणादनुभवन् दुःखं सुखं वागतम् । कुर्याद्यः शुभमेव सोप्यभिमतो यस्तूभयोच्छित्तये, सर्वारम्भपरिग्रहग्रहपरित्यागी स वन्धः सताम् ॥२६२॥ अर्थ:-जीव पूर्वभवोंमें जिन शुभ या अशुभ कर्मोंका संचय करते हैं उसका नाम दैव है । जब उस दैवका तीव्र उद्रेक प्रगट होता है तब जीवोंको सुख या दुःख आकर मिलते हैं। उस समय सामान्य जीवोंकी यह दशा होती है कि वे उसमें तन्मय बन जाते हैं; और सव कुछ अपना कर्तव्य भूलकर उसी दुःख सुखकी भावना करते बैठते हैं । शुभ दैवके समयमें जीव विषयानंद पाकर अपना कर्तव्य भूलते हैं और अशुभके समयमें दुःखसे व्याकुल होकर कर्तव्य-विमुख बनते हैं। ऐसे संसारमें जो शुभाशुभ दैवके उद्रेकसे कुछ सावधान रहकर अपने शुभ कर्मोको छोडता नहीं है वह बुद्धिमान माना जाता है । विद्वान् उसकी प्रशंसा करते हैं। यद्यपि शुभ कर्म भी संसारबंधनका ही एक भेद है । परंतु उस कर्मके करनेवाले भी जब कि आदरयोग्य समझे जाते हैं

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