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आत्मानुशासन.
अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते, भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलाईता | इति कृतधियः कृच्छ्रारम्भैश्वरन्ति निरन्तरं, चिरपरिचिते देहेप्यस्मिनतीव गतस्पृहाः ॥ २५२ ॥ अर्थः- आशा, यह एक वेलके तुल्य है । बडे बडे तपस्वियों में भी यह आशा - बेल हरी-भरी कायम रहती है । इसके ऊपरकी डालियां सदा ही लहलहायां करती हैं । कबतक ? जबतक कि इसकी जडमें पानीका गीलापन रहता है। इसकी जड कौनसी है ? मन | मनसे ही इस आशाकी उत्पत्ति होती है। इसकी वृद्धि भी तबतक होती है जबतक कि मनसे ममत्व छूटा नहीं है । इसलिये ममत्व, मानो आशा - वेलको हरा-भरा रखनेवाला पानी है। इस आशाको जिन्हें नष्ट करने की इच्छा होती है वे प्रथम ही ममत्व दूर करते हैं । जैसे पानीका गीला • पन न रहनेपर बेल सूख जाती है वैसे ही ममत्व नष्ट होते ही आशासूख जाती है । इसलिये बुद्धिमान् योगी कठोर कठोर तपों द्वारा ममत्व नष्ट करनेका निरंतर प्रयत्न करते हैं। और तो क्या, चिरपरिचित अपने शरीर से भी वे योगी अत्यंत विरक्त हो जाते हैं ।
क्या शरीरसे ही विरक्त होते हैं, अन्य वस्तुओं से नहीं :-- क्षीरनीरवदभेदरूपतस्तिष्ठतोरपि च देहदेहिनोः । भेद एव यदि भेदवत्स्वलं बाह्यवस्तुषु वदात्र का कथा ॥ २५३ ॥ अर्थ:-क्षीरनीरकी तरह अभिन्न दीखनेवाले शरीर व आत्मामें ही जब कि भेदज्ञान उत्पन्न होकर उसने शरीर से ममता छुड़ा दी तो जो प्रत्यक्ष जुदे दीखनेवाले स्त्री-पुत्रादि बाह्य विषय हैं उनसे ममता क्यों न छूटेगी ? भला, अत्र प्रत्यक्ष बाह्य विषयोंकी क्या गिनती रही ? शरीरसे ममत्व छुडानेवाली भावना:
तप्तोहं देहसंयोगाज्जलं वाऽनल संगमात् । इह देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणः ॥ २५४ ॥