________________
२३२
आत्मानुशासन.
द्रष्टामोति न तावतास्य पदवीमिन्दोः कलई जग,द्विश्वं पश्यति तत्पभाप्रकटितं किं कोप्यगात्तत्पदम् ॥२५॥
अर्थ:-जिनमें ज्ञानादि अनेकों गुण प्रकट होचुके हैं ऐसे महात्माओंमें भी कभी कभी दैववशात् तुच्छ दोष उत्पन्न हो जाते हैं। उनके अनेक उत्कृष्ट गुणोंके प्रकाशमें वे दोष अति तुच्छ होकर भी जैसेके तैसे ठीक झलकने लगते हैं। इसीलिये वे दोष उत्पन्न होते ही अज्ञानियोंतककी समझमें आजाते हैं। परंतु महात्मा महात्मा ही रहते हैं और वे अज्ञानी अज्ञानी ही रहते हैं। दोषका देखनेवाला देखलेने मात्रसे कुछ ज्ञानी या वैसा महात्मा नहीं बन जाता। दोषोंका देखनेवाला सदा दोषोंमें ही पड़ा रहता है। उसके आत्मीय गुणोंका उत्कर्ष नहीं होपाता । देखो,
चन्द्रमें अनेकों गुण हैं । परंतु साथ ही उसमें एक ऐसा लांछन पड़ा है कि वह लांछन छोटासा होकर भी सारे जगके देखनेमें आता है। उसकी प्रभासे वह लांछन सारा प्रकाशित होता है। इसी कारण जगभरके लोग उसे देखलेते हैं। परंतु क्या देखनेवालोमेंसे आजतक कोई एक भी उसके महत्त्वको पासका है ? नहीं। उत्तम पदार्थके अन्तर्गत रहनेवाले किसी दोषके देखलेने मात्रसे उस दर्शक की योग्यता कभी बढती नहीं है। वह कभी वैसा महात्मा या उससे चढबढ-कर नहीं होसकता है।
भावार्थ:-रे तपस्वी, जब कि तू अपने कषायोंके नाश करनेसे मोक्षपद पासकता है, अन्यथा नहीं; तो फिर दूसरोंके दोष देखनेमें क्यों तत्पर होता है ? दूसरोंके दोष देखना, यह भी एक कषाय है । ऐसा करनेसे तेरे कषाय व दोष सर्वथा नष्ट नहीं होसकेंगे। इसीलिये तबतक तेरा कल्याण भी नहीं होगा जबतक कि तू दूसरों के दोष देखने में लगा रहेगा। क्यों ? यों कि, दोष देखनेवालेके हृदयमें ईर्ष्या सदा जाज्वल्यमान रहती है। एक तो यही कारण है कि उसका कल्याण