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हिंदी -भाव सहित (तू अपनी तो सँभाल रख ) । २३१
प्रमादादि दोष कैसे आते हैं ?स्वान् दोषान् हन्तुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्धरैः । तानेव पोषयत्यज्ञः परदोषकथाशनैः ॥ २४९ ॥ अर्थः- साधु, जब कि सभी पापारंभसे निवृत्त होचुका है तो उसमें कषायों का उद्रेक बढना सहज संभव नहीं है । परंतु पासमें जो शरीर शेष है उसमें यदि आसक्ति होने लगे तो कषायोद्रे हो जाना संभव है । अत एव इस आसक्तिको क्षीण करनेकेलिये वह साधु अति दुर्धर कायक्लेशादि तपोंको सदा करता रहता है । उसकी यह समझ हो रही है कि यदि मैं तपश्चरण में सावधान रहा तो रागादि या प्रमादादि दोष मुझमेंसे निकल जायगे । आश्चर्य, वह साधु यह नहीं समझता है कि मैं चाहें कैसे ही घोर तपश्चरणोंद्वारा दोष न बढने देनेकी सावधानी रक्खूं परंतु दूसरोंके दोष गानेसे तथा सुनने से भी वे दोष बढेंगे । इस अज्ञानमें पडा हुआ वह साधु दूसरोंके दोष देखता है, दूसरों से कहता है, सुनता है । इस विपरीताचरणके वश वह सदा ही अपने प्रमादादि दोषोंको बढाता है । अरे भाई, यदि कोई अजीर्णा - दि दोष हटाने के लिये वायुसेवन या भ्रमणादि क्लेश तो सहता हो किंतु गरिष्ठ भोजन करता ही जाय तो उसका वह दोष किस प्रकार नष्ट होगा ? प्रमादादि दोषोंके शमनार्थ तप करना तो भ्रमणादिके तुल्य तुच्छ उपचार है और परदोषकथादिका छोडना भोजनत्यागके तुल्य मुख्य उपचार है। इसलिये यदि वीतरागी बनना है तो इसे अवश्य छोडो । किसी महात्मा के दोष देखने में मत लगो:दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो दैवानुरोधात् काच, - द्यातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छन समस्तं द्रष्टुंमन्धोप्यलम् ।
१' रससंयुक्त भोजन कारे देह पुष्ट होय' यह पं. टोडरमलजीका लिखना ठीक नहीं है । यदि शरीरकी जगह ' अजीर्णादि ' लिखते तो ठीक था । क्योंकि, अजीर्णादि, दोष होने से दोषों के साथ समानता बैठती है ।
२ इस श्लोककी उत्थानिका तथा अर्थ पं. टोडरमलजी की समझमें नहीं आया । देखो प्रस्तावना