Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 258
________________ हिंदी -भाव सहित ( दूसरोंके दोष मत देखो ) । २३३ नहीं हो पाता । दूसरे, दोषैकदृष्टि पुरुषके उत्कृष्ट गुणोंका उत्कर्ष व प्रादुर्भाव नहीं हो पाता । हो कहांसे ? गुणोंका उत्कर्ष करनेकी तरफ उसका लक्ष्य ही नहीं जाने पाता है । जबतक जग है तबतक थोडे या बहुत दोष तो सभीमें प्राय रहते हैं । इसलिये सर्वांश शुद्धताका जगमें तो कहीं उदाहरण ही नहीं मिल सकेगा । और उन्नतिका क्रम यह है कि एकको देखकर दूसरा अपनी उन्नति करनेमें लगता है । किन्तु जो दोषदर्शी है वह अपने से बड़ा किसीको भी नहीं समझपाता । इसलिये उसका गुणोत्कर्ष होनेके बदले दोषों में उत्कर्ष होनेलगना संभव है । इसीलिये भाई, तू किसी महात्मा के दोष देखने में मत लग । तभी तेरा कल्याण होगा । जिसमें दोष हैं वह अपने दोषोंको जब सुधारेगा उसका कल्याण तभी होगा; नहीं तो नहीं। उसके दोष बने रहने न रहनेसे तुझे हानि या लाभ क्या है ? सारांश, तू उससे उपेक्षित हो । परंतु, जबतक वास्तविक ज्ञान नहीं हुआ तभीतक परदोषग्रहणादि दोष रहते हैं । देखो:यद्यदाचरितं पूर्वं तत्तदज्ञानचेष्टितम् । उत्तरोत्तरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ।। २५१ ॥ -- अर्थः- दूसरे साथियोंसे अपनेको श्रेष्ठ सिद्ध करनेकी अभिलाषा होना स्वाभाविक बात है । जबतक अज्ञान रहता है तबतक यह अभिलाषा अवश्य रहती है । इस अभिलाषा के वश जीव परनिंदा, स्वप्रशंसा, परगुणोच्छादन, स्वगुणाविर्भाव, उपवास व कायक्लेशादि उम्रतप आदि कार्य करता है । परंतु जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब वही सच्चा योगी बन जाता है और उसे पहिले अपने पूर्वोक्त सभी ये कार्य अज्ञानकृत भासने लगते हैं । भावार्थ, सभी जगह क्रियाओंसे केवल कार्यसिद्धि नहीं होती किंतु कषायादि दोष दूर होनेपर जो परिनाम विशुद्धता प्राप्त होती है वही मुख्य कार्यसाधक समझनी चाहिये । इसलिये सबसे प्रथम उदासीनता धारण करो | देखो: ३०

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