Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 255
________________ २१. आत्मानुशासन. . द्वेष है। इसीलिये जिस साधुमें रागद्वेष जाज्वल्यमान होचुके हों उ. सका फिर निर्वाण प्राप्त होना कठिन नहीं किंतु असंभव है । इसीलिये भाई, मर्यादामें थोडासा भी भंग होना अच्छा मत समझो, उसकी उपेक्षा मत करो। भंग होता दीखै तो तत्काल उसे संभालो। मर्यादाभंगके हेतु:... दृढगुप्तिकपाटसंहतितिभित्तिमतिपादसंभृतिः। यतिरल्पमपि प्रपद्य रन्ध्र कुटिलैर्विक्रियते गृहाकृतिः ॥२४॥ अर्थः-घरके दरवाजोंमें किवाड लगाने पडते हैं, घरकी भीते ठीक रखनी पडती हैं। तो भी कहीं कोई छेद हो जाय तो उसी से सर्प घरमें घुस जाते हैं। इसलिये घरका स्वामी छेद भी न रहने देनेकी सावधानी रखता है । वस, यही अवस्था योगीकी है । यतिका शरीर, यह मानो एक घर है। शरीर-वचन-मनकी पूर्ण सावधानी या स्थिरता, ये जिस घरके किवाड हैं। ये किवाड अच्छी तरह बंद कर रक्खे हैं । प्रवृत्ति करनेमें जो धैर्य है वे ही जिस घरकी भीतें हैं । निर्दोष, दृढ व पवित्र बुद्धि, यही जिसकी मजबूत नीव है। घरके समान यह साधुका शरीर इतना दृढ तथा सुरक्षित है। तो भी इसमें कदाचित् किसी तरफ यदि कोई प्रमादादिरूप छोटासा छेद पड जाय तो उसीके द्वारा कुटिल रागदि-सर्प घरके भीतर घुस जाते हैं और घरको भयंकर बनादेते हैं। प्रमाद अथवा व्रतादि भंग करना, यही साधुशरीररूप घरके भीतर घुसनेकेलिये छेद समझना चाहिये। भावार्थ, प्रमादादि दोष ही साधुके आत्माको कर्मबद्ध करनेके कारण हैं । इसलिये प्रमाद तथा व्रतभंग एवं वृतातीचार, इन सवोंको न आने देना चाहिये। इनका आना पूरा पूरा रुकगया तो पूर्वबद्ध पुण्यपाप कर्म यों ही निकल जायगे और साधु शीघ्र ही संसार व शरीरादिसे मुक्त हो जायगा। , यह विषम छन्द है । अथवा, ' संवृति! ' ऐसा होसकता है।

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