________________
२०८
आत्मानुशासन. रहते हैं और न उधरके । संसारके वर्तमान विषयभोगसुखोंको तो वे परलोक-सुखकी अभिलाषाके वश होकर छोड चुके हैं, और सच्चे वीकखगी नहीं बनपाये हैं इसलिये परलोकके सुखोंसे यों वंचित रहगये । विचारे वे अज्ञानवश दोनो सुखोंसे दूर रहकर यों ही मारे मारे फिरते हैं।
कषायविजय करनेमें चूकनेका स्थल दिखाते हैं:उद्युक्तस्त्वं तमस्यस्यधिकमभिभवं त्वामगच्छन् कषाया, प्राभूद्धोधोप्यगाधो जलमिव जलधौ किंतु दुर्लक्ष्यमन्यैः । निव्यूटेपि प्रवाहे सलिलमिव मनार निम्नदेशेष्ववश्यं, मात्सर्य ते स्वतुल्यैर्भवति परवशादर्जयं तज्जहीहि ॥२१५॥
अर्थः-तू तप करनेमें तत्पर हो चुका है और तेरे कषाय भी अत्यंत कृष होगये हैं। समुद्रमें जैसे जल अथाह संचित हो जाता है वैसे ही तेरे हृदय-समुद्रमें अथाह ज्ञान भी प्रगट हो चुका है। कषायका वेग भी रुक गया है।
परंतु अभी कर्मका उदय जारी रहनेसे कुछ थोडासा छिपा हुआ काय मौजूद है। जैसे किसी सरोवरमेंसे पानी सूख गया हो परंतु उसके किसी किसी खड्डेमें थोडा थोडा पानी तो भी रह जाता है । इसी प्रकार तेरे हृदयमेंसे कषायका प्रवाह तो निकल गया है परंतु अपने समान ज्ञानी व तपस्वियोंके साथ कुछ मत्सरता शेष रह गई है। परंतु वह इतनी सूक्ष्म है कि दूसरे उसकी सत्ताको समझ भी नहीं पाते हैं। वह अभी छूटी नहीं है। उसका निकलना कठिन भी है। परंतु उसे दूर करनेका प्रयत्न तू अवश्य कर। . भावार्थः-वाकी सारे कषाय कम हो जानेपर भी साथियों के साथ मत्सरता प्राय सभीके हृदयमें बनी रहती है । और वह मत्सरता सहजमें नहीं छूट सकती है। इलिये उसे दुर्जेय बताया है तथा उसका मुख्य उल्लेख करके दिखाया है। साथियोंके साथकी मत्सरता छोडदेना मानो बडा ही कषायोंका विजय हुआ समझना चाहिये ।