Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 252
________________ हिंदी-भाव सहित (संसार-मुक्तिके कारण)। २२७ अरे भाई, शरीरादि कभी अपना स्वरूप नहीं होसकते और आप स्वयं कभी शरीरादिरूप नहीं होसकता है। मैं, मैं ही रहूंगा; शरीरादिक जो भिन्न हैं वे भिन्न ही रहेंगे। ऐसा निश्चित ज्ञान जबतक नहीं उत्पन्न होता तबतक संसारसे छुटकारा होना असंभव है। दृष्टिके फेरसे उसके फलमें फेरफारःबन्धो जन्मनि येन येन निबिडं निष्पादितो वस्तुना, बायार्थैकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः साम्मतम् । तत्तत् तनिधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो, दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥ २४४॥ अर्थः-आजतकके पहिले भवोंमें मेरी बाह्य वस्तुओंमें अकथनीय प्रीति रही। इसीलिये वे वे पदार्थ सब निबिड बंधके कारण हुए । परंतु अब मुझै सत्य आत्मज्ञान प्रगट हो चुका है और इसीलिये वैराग्य भी सीमान्त प्राप्त हो चुका है। इसलिये जो पदार्थ बंध उत्पन्न करते थे वे ही आज बंधका नाश कर रहे हैं। ठीक ही है । कहां वह अज्ञान और कहां यह सच्चे ज्ञानियोंकी अनुपम कुशलता ? बडा अंतर है। बंधका कारण क्रियामात्र नहीं है किंतु परिणाम हैं। बन्धव्युच्छेद-क्रमःअधिकः कचिदाश्लेषः कचिद्धीनः कचित्संमः। कचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ॥ २४५ ॥ अर्थः-अभव्य जीवोंमें कर्मबंधन सवसे अधिक होता है और आसन्न भव्योंमें समान, एवं अतीव आसन्न भव्योंमें केवल कर्मोंका १ यद्वा क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः। २ पहिले छापेमें इस श्लोकका अर्थ करते समय कुछ चक की है । वह यह कि, पहिले गुणस्थानमें अविपाक-निर्जरा नहीं होसकती परंतु उन्होंने बताई है। यदि वह निर्जरा सविपाद मानी जाय तो फिर थोडी लिखना भल है। दूसरी भल यह है कि चतुर्थ गुणस्थानमें बन्ध व निर्जराको समान बताया है। किंतु ऐसा है नहीं । तीसरे गुणस्थानमें वह समान हैं और चौमें मंच भोडा है निर्जरा अधिक है। ऐसा कहना चाहिये था।

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