Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 250
________________ हिंदी-माव सहित (संसार-मुक्तिके कारण)। २२५ नहीं है । यदि छूट सकता है तो कब और कैसे छूटेगा ? ऐसी आशंकाओंको हटानेकेलिये नीचै कहते हैं कि: अस्त्यात्माऽस्तमितादिबन्धनगतस्तद्वन्धनान्यास्रवै,स्ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽव्रतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ कचित्, सम्यक्त्वव्रतदक्षताऽकलुषताऽयोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४१॥ अर्थ:-ज्ञान इच्छा राग द्वेष व इनके प्रकार, एवं जन्मते ही स्तन्यपान, इत्यादि विचित्रता या असाधारणता देखनेसे आत्मा मानना पडता है । अनिष्ट दुःखोंको भोग रहा है इसलिये वह परतंत्र अथवा बद्ध भी मानना पडता है । पूर्व कर्मोंका नाश होता रहता है व नवीन कर्मोंका संचय होता जाता है इसलिये अनादिसे यह जीव कमबद्ध ही चला आ रहा है। उन कोंके स्थिति अनुभागादि व ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार हैं। कर्मपिण्डका बन्धन मन वचन शरीरकी चंचलतासे होता है। कर्मपिण्डमें फलदान शक्ति तथा बँधनेकी शक्ति क्रोधादि कषायोंसे उपजती है। कर्मपिण्डका आना व फलदानादि शक्तिका उपजना ये दोनो कार्य एक साथ होते हैं इसलिये दोनोंके कारण भी एक ही साथ जमा हो जाते हैं । अर्थात्, कर्मपिण्ड केलिये निमित्तभूत चंचलताको कषाय मिलकर उत्तेजित करते हैं तव यह बंध सुरू होता है । कषायोंका प्रादुर्भाव तब होता है जब कि आत्मा प्रमादी बनता है । प्रमादकी वृद्धि हिंसादि अव्रत-कौके करनेसे होती है । हिंसादि अव्रतों में जो जोर बढता है वह मिथ्यात्वके सहवाससे । इस प्रकार यह जीव इन उत्तरोत्तर कारणों के मिलनेसे अधिकाधिक मलिन होता है । उपदेश आदि निमित्तोंके मिलने पर कदाचित् किसी एक मनुष्यभवमें यदि इस प्राणीको सम्यग्दर्शन, व्रत, विवेक तथा वीतरागता व निश्चलता प्राप्त हो जाय तो यह प्राणी तरजाता है । सबसे प्रथम १ “ स्तिमितादिवन्धनगत: " ऐसा भी पाठ है । स्तिमितं स्थितिः ।

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