Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 248
________________ हिंदी -भाव सहित ( तपस्वीकी भावना ) | २२.३. हटाओ । कितने ही लोगोंकी जो यह समझ रहती है कि विषयों में रहकर भी परिणाम शुद्ध रखनेसे कल्याण होना संभव है; वह भूल है । जबतक उपाधि हटती नहीं है तबतक उसके कार्य जो रागद्वेष वे अवश्य उत्पन्न होंगे । वे उत्पन्न हुए कि आकुलताजन्य दुःख निःसंदेह होगा । और जब कि उपाधि हटादी गई तो फिर प्रवृत्तिकी भावना ही नहीं रहती । बस, इसीलिये वह सच्चा सुख है । I उदासीन भावनाका स्वरूप: भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥ २३८ ॥ अर्थ :- अब मुझे संसार भ्रमणका उच्छेद करके आत्मसुख प्राप्त) करना है । इसलिये जो भावना संसारचक्रमें पडे हुए आजतक मैंने धारण कर रक्खी थीं उन्हें तो अब मैं छोड़ता हूं और जो आजतक कभी धारण नहीं कीं उनका चितवन करता हूं। क्योंकि, आजतककी भावनाओंसे संसारकी वृद्धि हुई । उसके क्षयके कारण आजतक की भावनाओंसे उलटे ही होंगे । आजतककी संसारवर्धक भावना मिथ्या दर्शन, विपरीत ज्ञान व उलटी प्रवृत्ति । अब जिन भावनाओंको स्वी- ' कार करना है वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र हैं । इसीका विशेषं कथन: — शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट् त्रयम् । हितमाद्यमनुष्ठेयं शेषत्त्रयमथा हितम् ॥ २३९ ॥ 1 अर्थ:- शुभाशुभ दो योग, इससे आनेवाले पुण्य-पाप ये दो कर्म, इसका फल सुख दुःख ये दो । ऐसे ये मिलकर छह होते हैं । इनमें से शुभ योग, पुण्य कर्म, सुखानुभव ये तीन हितावह होने से प्राथ हैं । वाकीके तीन दुःखजनक होनेसे हेय हैं । भावार्थ, तीनो हेय विषयोंको छोडकर उपादेय तीनोका स्वीकार करना अवश्य है । पहिली अवस्थामें

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