Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 244
________________ हिंदी-भाव सहित (शानसे केवल कल्याण न होगा)। २१९ दृष्टार्थस्य न मे किमप्ययमिति ज्ञानावलेपादमुं, नोपेक्षस्व जगत्त्रयैकंडमरं निःशेषयाऽऽशाद्विषम् । पश्याम्भोनिधिमप्यगाधसलिलं बाबाध्यते वाडवः, क्रोडीभूतविपक्षकस्य जगति प्रायेण शान्तिः कुतः।।२३०॥ अर्थ:--मुझै तत्त्वोंका पूर्ण ज्ञान होचुका है । ज्ञानी मनुष्यके सामने यह विषयाशा-शत्रु कुछ नहीं है । अरे भाई, तू ऐसा ज्ञानका मद मत कर । ऐसा मद रक्खा तो आशा-शत्रुकी उपेक्षा हो जायगी किंतु उसकी तरफसे निश्चित होना ठीक नहीं है । इस शत्रुको तो जैसे बन सकै बैसे सदा दवाता ही रह । यह आशा-शत्रु इतना प्रबल व भयंकर है कि इससे तीनो लोकके प्राणी दव रहे हैं । जबतक इसका नाश नहीं हुआ तबतक तू कभी स्वस्थ मत बैठ । जगमें जबतक किसीको शत्रु दवारहा हो अथवा जिसका शत्रु जीता हो तबतक उसे शांति कैसी ? देखो, समुद्रमें जलकी कमी नहीं है-अगाध जलका वह स्वामी है । तो भी उसे सदा बडवाग्नि जलाता ही है । शत्रुका रहना सभीको दुःखदायक होता है । पूरा निर्मोह हुए विना आशापाश छूटेगा नहीं । यह आशा पवित्र ज्ञानादि गुणोंको भी प्रशंसायोग्य होने नहीं देती है । देखोः स्नेहानुबद्धहृदयो ज्ञानचरित्रान्वितोपि न श्लाघ्यः । दीप इवापादयिता कज्जलमलिनस्य कार्यस्य ॥ २३१ ॥ अर्थः---जबतक किसी साधुके हृदयसे स्नेह निर्मूल नष्ट नहीं हुआ तबतक उसके ज्ञान-चारित्रादि गुणोंकी प्रशंसा नहीं हो पाती है। दीपकसे प्रकाश जो होता है वह उत्तम कार्य है । परंतु साथ ही जो काजल निकलता है उसे लोग अच्छा नहीं मानते हैं । यदि दीपकमें १ ज्ञानिनामपि चेतांसि महामाया प्रमोहयेत् ॥ २ आशादिट् । ३ जगत्त्रयस्यैकं डमर-भयं क्षोभो वा यस्मात्तम् । ४ आशा अर्थात् स्नेह या राग । यहां देषका संग्रह उपलक्षणसे होसकता है।

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