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हिंदी-भाव सहित (तपस्वीकी महिमा)। २१५ है । वास्तवमें इतनी ऊंची वृत्ति होना उसीका काम है कि जो संसारके निकट आ पहुचा है । ऐसा मनुष्य भी यदि चिरसंचित कर्मक्लेशों. को निर्मूल नहीं करसकेगा तो दूसरा कौन करेगा? ऐसी दशा संसारवासीकी नहीं होसकती है । तब ? परमात्मदशाको प्राप्त हुए साधुकी ऐसी दशा होगी । उसके मुक्त होनेमें फिर संदेह ही क्या है ? देखो:
समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः, स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः,
कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ताः ॥ २२६ ॥ __ अर्थ:-जिन मुनिराजोंने हेयादेयका पूरा ज्ञान प्राप्त करलिया है; जो सभी प्रकारके पापोंसे उपरत होचुके हैं, जिन्होंने अपना चित्त अपने सच्चे कल्याणकी खोजमें लगा रक्खा है; मन तथा इंद्रियोंका विषयोंकी तरफका प्रचार जिन्होंने रोकदिया है; जो सदा स्वपरके हितकारी वचन बोलते हैं; विद्यमान तथा भविष्यत विषयभोगोंकी तरफसे जो आकांक्षा हटा चुके हैं; ऐसे वीतरागी साधु मुक्तिके पात्र क्यों न हों ? वे न हों तो दूसरा कौन होगा? ऐसी दशा होजानेपर भी भृष्ट होनेका डर रहता है । देखो:
दासत्वं विषयप्रभोर्गतवतामात्मापि येषां पर,स्तेषां भो गुणदोषशून्यमनसां किं तत्पुनर्नश्यति । भेतव्यं भवतैव यस्य भुवनप्रद्योति रत्नत्रयं, भ्राम्यन्तीन्द्रियतस्कराश्च परितस्त्वं तन्मुहुर्जागृहि ॥२२७॥
अर्थः-अध्यात्मज्ञान होकर भी जिन्हें विषयी अज्ञानी जनोंका सहवास हो जाता है उनका मन फिर भी विषयोंमें फस सकता है। उन्होकेलिये यह शिक्षा दिखाते हैं; कि रे भाई, जो विषयरूप स्वा. भीके दास हो रहे हैं उनका क्या बिगडता है ? वे यदि सावधान हैं तो क्या और असावधान बने हैं तो भी क्या डर है ? उनके पास