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हिंदी-भाव सहित ( शरीरकी हेयता)। २०.३ भावार्थ:-गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, धर्म, परीषहजय इत्यादि मोक्षकारणोंका व उनके प्रकारोंका विचार करते बैठनेसे केवल एक शरीरके नाश करनेको मुख्य समझकर यथासंभव उसीके नाश करनेमें लगना असली कर्तव्य है। दोनो बातोंका भाव तो एक ही है परंतु ध्यान देने योग्य दश बातें न कहकर मुख्य एक ही बात बता देनेसे ध्यान या उपायमें लगनेवालेको सुगमता पडती है। और वास्तविक है भी यही बात । यदि शरीर ही न हो तो आत्माको परतंत्र बनाये रखनेको दूसरा कौन समर्थ है ?
अथवा, तत्कालकेलिये केवल जिस तिस तरह रोग दूर करके सुखी बननेकी इच्छा होना वह क्षुद्र या संकुचित भावना है । और सदाकलिये सुखी होनेकी इच्छासे उपाय करना वह विशाल व वास्तविक भावना है । सदाकेलिये सुख तभी होगा जब कि शरीर न रहै । इसीलिये शेष क्षुद्र विचार हटाकर शाश्वत सुखके कारणमें लगो। देखो:
शरीरकी कृतघ्नताःनयन्साशुचिप्रायं शरीरमपि पूज्यताम् । सोप्यात्मा येन न स्पृश्यो दुश्चरित्रं धिगस्तु तत् ॥२०९॥
अर्थः-शरीरका वास्तविक स्वरूप विचारा जाय तो अत्यंत ही निंद्य है । हाड, मांस, रुधिर, मल, मूत्र इत्यादि अति अपवित्र वस्तुओंसे भरा हुआ है। शरीरका कोई भाग भी इन अपवित्र वस्तु । ओंके सिवा खाली नहीं है । सर्वतः तन्मय है। शरीर सरीखी वस्तुको कोई दूरसे देखना भी पसंद न करै इतना यह शरीर निकृष्ट है । परंतु तो भी आत्माने इसपर इतना बडा उपकार किया है कि इसे अपना साथ देकर लोकमें आदर योग्य बना रक्खा है । ठीक ही है, आत्माके संबंधसे ही इसकी पूछ है। नहीं तो इसे कोई छूता व देखता तक नहीं । परंतु यह शरीर इतना कृतघ्न है कि आजतक सघन संबंध रहते हुए भी इसने उस आत्माकी चांडालादि बनाकर - स्पर्शके योग्य भी