Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 225
________________ आत्मानुशासन. करना उचित है ! तुझै चाहिये कि शरीरको अपवित्र व दुःखदायक मानै । तभी तेरा ज्ञान सत्य ज्ञान कहावेगा । और इतना समझलेना भी वस न होगा। तब ? असली साहस तेरा तब समझना चाहिये कि तू इससे उपेक्षा करके किसी दिन सर्वथा इसे त्याग दे। तू वास्तविक सुखी व स्वाधीन तभी बनसकेगा। यदि रोगादिके कारण मनमें क्षोभ हो तो क्या करना चाहिये ? अपि रोगादिभिदैन मुनिः खेदमृच्छति । उडुपस्थस्य कः क्षोभः प्रबुद्धेपि नदीजले ॥२०४॥ अर्थ:-जो मुनि शरीरके वास्तविक क्षणिक व अपवित्र स्वभावको समझ चुका है तथा आत्मामें ज्ञान-शांती उत्पन्न कर चुका है उसे रोगादिक बढ जानेपर भी खेद नहीं होगा। अरे, जो नावमें बैठा हुआ है उसे नदीमें जल बढ आनेपर भी क्षोभ क्यों हो ? भावार्थ:-सच्चा साधु संसार-नदीसे पार होनेकेलिये ज्ञान-शां. तीरूप नावमें बैठा हुआ, रोगादि-जल बढ जानेपर भी डरता नहीं है। कितना ही वह जल बढ आया हो परंतु मैं पार ही पहुचूंगा । उसे इस बातका विश्वास रहता है। हाँ, यदि ज्ञान-शांतिरूप नावको सुदृढ न रखकर उसमें संशयादि अथवा विषयाकुलता आदि छेद करदिये हों तो अवश्य वह डूवेगा। इसलिये मात्र उसे ये छेद पडनेसे सावधान रहना चाहिये। तो फिर रोग बढनेपर क्या करे ? जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा, नो चेत्तनुं त्यजतु वा द्वितयी गतिः स्यात् । लग्नाग्निमावसति वन्हिमपोह्य गेही, निर्हाय वा व्रजति तत्र सुधीः किमास्ते ॥ २०५ ॥ अर्थः-रोग उत्पन्न होनेपर यदि उसका उपाय होसकता हो तो उपाय करै व शांत के साथ अपने शरीरमें स्थिरता रक्खै । यदि

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