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हिंदी-भाव सहित (आत्मासे शरीरका भेद)। १९९ और भी शरीर व आत्मामें क्या अंतर है वह देखोः-- शुद्धोप्यशेषविषयावगमोप्यमूर्तो,प्यात्मन् त्वमप्यतितरामशुचीकृतोसि । मूर्त सदाऽशुचि विचेतनमन्यदत्र, किंवा न दूषयति धिग्धिगिदं शरीरम् ॥ २०१॥
अर्थः-अरे भाई, तू स्वतः तो संपूर्ण चराचर विषयोंको जान सकता है, अमूर्तीक है, अत्यंत शुद्ध है । परंतु शरीरने तुझै अत्यंत अज्ञानी बना रक्खा है, जडके समान मूर्तीक सरीखा बना दिया है व बहुत ही मलिन करदिया है। ऐसा हुआ क्यों ? यों, कि शरीर स्वयं चैतन्यशक्तिरहित है, मूर्तीक है व अशुचि है। यह शरीर तेरे ऊपर अधिकार प्राप्त कर चुका है। इसीलिये तो तुझै इसने अपनासा बनालिया है। यदि तू सावधान हो तो शरीरकी क्या शक्ति है, कि वह तेरे ऊपर अपना प्रभाव डाल सके। तू यह भी मत समझ कि इस शरीरसे मैं जुदा हो ही नहीं सकता हूं। यह शरीर तुझसे वास्तवमें जुदा है । अपनी शक्तिसे जुदेको जुदा करदेना व अपना मूल सुखकर स्वभाव प्रगट करना कोई बड़ी बात नहीं है । परंतु तू शरीरसे जुदा जबतक नहीं होसकता है तबतक तेरी यही दुर्दशा बनी रहेगी। शरीरसे जिसका संबंध एक वार हो जाता है उसमेंसे ऐसी कोनसी चीज है कि जिसे इसने अपवित्र न बनाया हो ? इस शरीरकी जितनी निंदा की जाय उतनी ही थोडी है । जो शरीर केसर कपूर आदि पवित्र व सुगंधित वस्तुओंको लगते ही अपवित्र व दुर्गंधयुक्त करदेता है उस शरीरको अनेक वार धिक्कार है । तब ?
हा हतोसितरां जन्तो येनास्मिस्तव सांप्रतम् । ज्ञानं कायाऽशुचिज्ञानं, तत्त्यागः किल साहसः ॥२०३॥
अर्थः-अरे जीव, जिस प्रत्यक्ष शरीरके पराधीनताजन्य अपार दुःखोंसे तू अति दुःखी हो रहा है उस शरीरके विषयमें अब तुझै क्या