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आत्मानुशासन. अर्थ:- कोई भी पदार्थ दूसरे किसी भी पदार्थके साथ कभी तन्मय नहीं होता । प्रत्येक वस्तु शाश्वत अपनी निरनिराली सत्ताको धारण करती है । इस नियमसे जब कि मूर्तीक मूर्तीक भी परस्परमें तन्मय नहीं होसकते तो, तू तो अमूर्तीक है व शरीरादि मूर्तीक हैं; इसलिये तुम दोनोकी अवस्था एक कैसे होसकेगी? कभी नहीं । तो भी जो शरीरके साथ लेरी परतन्त्रतासी दीखपडती है उसका कोई खास सवव होना चाहिये । वह सवव केवल कर्म है । वह कर्म अनादिसे जुडा हुआ चला आरहा है । उसीसे तेरे साथ शरीरका बंधन हुआ दीख रहा है। इसीलिये वे शरीरादि पुद्गल तेरा रूप नहीं है । तो भी तू जिन उन शरीरादिकोंके साथ अपनेको तन्मय हुआ मान रहा है व उनमें तेरा अत्यंत प्रेम है । इसी अज्ञानके कारण यह संसारवन तेरेलिये अनेक दुःल्का दाता होरहा है; तू इसमें अनेक प्रकार छेदन भेदनके दुःख भोगता आरहा है । तू यदि शरीरसंबंधी आत्मीयभावना व प्रेम करना छोड दे तो तेरा सारा संकट कट जाय ।
परंतु अज्ञानियोंका प्रेम शरीरसे छूटता नहीं । देखो:माता जातिः पिता मृत्युराधिव्याधी सहोद्गतौ । प्रान्ते जन्तोर्जरा मित्रं तथाप्याशा शरीरके ॥ २०१॥
अर्थः-जन्म मरण होना ये जीवोंके माता-पिता हैं । आधिव्याधियां सहोदर भाई हैं । समीपमें ठहरा हुआ बुढापा, यह इस जीवका मित्र समझना चाहिये । भावार्थ, शरीर धारण करनेवाले जीवके साथ माता, पिता, भाई, मित्रकी तरह जन्म, मरण, आधिव्याधी तथा जरा ये दुःख सदा लगे ही रहते हैं। ऐसे दुःखपूर्ण शरीरमें क्या आस्था होनी चाहिये ? कुछ नहीं। परंतु अज्ञानी प्राणी तो भी इस शरीरमें ममत्व व सुखकी आशा लगाये ही रहता है। अरे भाई, यह शरीर क्षणभंगुर है व आधिव्याधी तथा बुढापेके दुःखोंसे परिपूर्ण है।
और तेरा निजात्मा अजर, अमर, अव्याबाध, व शाश्वत सुखका धाम है। फिर तू इस तुच्छ शरीरसे प्रेम क्यों करता है ?