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आत्मानुशासन.
कलियुगके तपस्वियोंकी और भी दुर्दशा देखो:वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकै लुप्तवैराग्यसंपदः ॥ १९८ ॥ अर्थ:- आज तो वैराग्यपूर्वक तप धारण किया हो और सवेरा होनेतक जिनका वैराग्य-धन स्त्रीकटाक्षरूप चोरोंने लूट लिया हो उन तपस्वियोंके तपसे तो गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। जिनका तप व वैराग्य इतना शिथिल हो कि दिन दो दिन तक भी पूरा टिक नहीं सकता हो उनके हाथ से संसारका विच्छेद होना असंभव है । ऐसा तप केवल संसारवृद्धिका ही उलटा कारण होता है। इसीलिये उस मलिन तपसे निर्मल गृहधर्म श्रेष्ठ मानना चाहिये ।
स्वार्थभ्रंशं त्वमविगणयन् त्यक्तलज्जाभिमानः, संप्राप्तोस्मिन् परिभवशतैर्दुःखमेतत् कलत्रम् |
वेति त्वां पदमपि पदाद्विमलब्धासि भूयः, सख्यं साधो यदि हि मतिमान् मा ग्रहीर्विग्रहेण ॥ १९९॥ अर्थः- अरे तपस्वी, तेरा मुख्य प्रयोजन आत्मीय कल्याण करना है | परंतु शरीरके होनेसे वह कल्याण नष्ट होगया तो भी तू कुछ गिनता नहीं है; उलटा लज्जा व अपमानको छोडकर स्त्रीकी खोज लगा । वह स्त्री यदि तुझें मिली तो भी सैकडों अपमान दुःख सहने पड़े होंगे । और फिर भी वह स्त्री एक पैर भी तेरा साथ नहीं
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१ ' भावि जन्म यत्' यह भी पाठ है । तब 'गार्हस्थ्य' शब्दका विशेषण होगा । २ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ श्रसिमन्तभद्रः॥ यहांपर एक नीति याद आती है । वह यह है कि:
वरं दारिद्रयमन्याय प्रभवाद्विभवादिह । कृषताभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ॥ अर्थात्“ अन्याय करके धन इकट्ठा करने की अपेक्षा दरिद्री रहना ठीक है । देखो, सूजनले शरीर स्थूल होनेकी अपेक्षा कृष रहना ही ठीक है 1