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आत्मानुशासन. अंतकाल आकर प्राप्त नहीं हुआ। तुम पक्का विश्वास करो कि यह शरीर ठीक एक दुष्ट शत्रुके समान है । जैसे शत्रु हाथसे निकल जानेपर फिर काबू नहीं देता वैसे ही यह शरीर भी आज तो तुमारे वश है, ज्ञानाभ्यासरूप यंत्र तुझै शरीरसे अधिक बलवान् बनाये हुए है। परंतु यह एक वार तुझारे पंजेसे छूटा कि तुझारेमें फिर यह ज्ञानाभ्यासादिका बल इतना न रहने देगा जिससे कि फिर तुम इसे वश कर सको । इसलिये अभी तुम इसे पूरा निर्बल बनाओ।
शरीर ही सब दुःखोंकी जड है । देखो:
आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि, काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मान-- हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु,
मुलं ततस्तनुरनथेपरम्पराणाम् ॥ १९५ ॥ अर्थः-सबसे प्रथम, जब कि शरीर उत्पन्न होजाता है तब उसमें दुष्ट इन्द्रियां प्रगट होती हैं । वे इन्द्रियां ही विषयोंकी तरफ दौडती हैं । और जब कि वे विषयोंकी तरफ दौडती हैं तब जीवोंको अनेक प्रकारका अपमान सहना पडता है; क्लेश उठाने पडते हैं; कभी कभी भय भी पैदा होता है। आत्मज्ञानका विस्मरण होनेसे जीव अज्ञानी बन जाता है जिससे कि अनेक कुकर्म करके पापका संचय कर दुर्गतियोंका पात्र बनता है । अब देखिये कि इन सब आपत्ति-विपत्तियोंका मूल कारण क्या रहा? मूल कारण हुआ शरीर । न शरीर होता, न इन्द्रियां पैदा होती । इन्द्रियां ही न होती तो विषयोंकी तरफ आत्माको झुकाता कौन ? और वह आत्मा न तो विषयोंमें फसता, न अपमान, क्लेश, भय, पाप संचित होते । दुर्गतियोंमें भी तो फिर क्यों जाता ? इसलिये सारी आपत्तियों का मूल कारण शरीर ही है । भावार्थ, शरीरसे प्रेम छूट जाय तो एक दिन शरीर नष्ट हो जाय । शरीर नष्ट हुआ कि सर्व दुःख दूर हुए । अत एव,
१ दूसरे तीसरे चरणोंका समास नियमविरुद्धसा है परंतु यहां होरहा है ।