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हिंदी-भाव सहित (तपकी सार्थकता)। १९३
ससय मत चूको । देखो:अनेन सुचिरं पुरा त्वमिह दासवद्वाहित,स्ततोऽनशनसामिभक्तरसवर्जनादिक्रमैः । क्रमेण विलयावधि स्थिरतपोविशेषैरिदं, कदर्थय शरीरकं रिपुमिवाद्य हस्तागतम् ॥ १९४॥
अर्थः-इसी शरीरने पहिले चिरकालपर्यंत तुझै इसी संसारमें सेवकके तुल्य बनाकर भ्रमाया है । क्या तुझै यह बात याद नहीं आती है ? तो ? जब कि इसने तुझै इतना कष्ट दिया है तो तू भी इससे आज पूरा पूरा बदला निकालले । आज यह तेरे हाथमें आचुका है । जबतक इसका नाश न हो तबतक तू इसे खूव क्षीण कर । अथवा तू इसे इस तरह कष्ट दे कि जिससे नष्ट न होकर यह कृष होता रहै किंतु अपनेसे बलवान् न होसकै । यदि यह बलवान् हुआ तो फिर इंद्रिय तथा मनके द्वारा तुझै विषयकीचमें फसादेगा जिससे कि तुझै चिरकालतक इसके पराधीन रहना पडेगा।
किस उपायसे इसे वश व कृष किया जाय ? अनशन अन्नपानका सर्वथा त्याग । सामिभक्त भूखसे आधा भोजन । अर्थात्, ऊनोदर अथवा अल्पाहार । रसवर्जन-खट्टे मीठे आदि खानेके विविध रसोंमेंसे एक दो रखकर शेष रसोंका त्याग, अथवा सव रसोंको त्यागकर नीरस भोजन करना । इनके सिवा कायक्लेशादि और भी अनेक ऐसे तपके भेद हैं कि जिनसे शरीर कृष व वश बना रहता है तथा आत्मभावना करनेमें सुलभता तथा सहायता प्राप्त होती है । कायक्लेश अर्थात् अधिक गर्मी व शर्दीमें जाकर निवास करना, किसी विकट आसनसे चिरकालतक ठहरना । ऐसा करनेसे शरीरको आराम न मिलकर क्लेश होता है जिससे कि जीव उस शरीरके आराममें मग्न होकर आपेको भूल नहीं पाता किंतु सदा सचेत रहता है । इत्यादि अनेक सुदृढ तपोंके द्वारा तबतक तुम इस शरीरको खूब ही क्षीण करते जाओ जबतक कि इसका
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