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हिंदी -भाव सहित ( विषयोंसे अहित ) ।
कषाय जीतनेका उपायः - दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं, स्वल्पोप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य, दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ॥१९१॥ अर्थ :- घी दूध वगैरह चिकनाईकी चीचें हैं; क्योंकि इनसे जठराग्नि मंद होकर रोग बढता ही जाता है, कम नहीं होता । जठरानि प्रदीप्त हो तो रसादि धातुओं की उत्पत्ति ठीक ठीक होनेसे रोग दूर हो सकता है । इसीलिये थोडासा भी चिकनाईकी चीजोंका खाना रोगीकेलिये निषिद्ध है । इसी प्रकार संसारके रोगसे छूटने वाले के लिये विषयोंका स्नेह थोडासा भी महा अनर्थकारी हैं । थोडासा भी विषयों में मोह I उत्पन्न हुआ कि ज्ञान - जठराग्नि मंद पडता है, जिससे कि कर्मबंधनरूप त्रिदोष उत्पन्न होकर संसार - रोग बढता ही चला जाता है । यदि मोह ऐसा अनर्थकारी है तो तू कुटुंबी मनुष्यों को व शेष विषयों को देखकर उनमें बुद्धिको क्यों फसाता है ? क्यों उनमें रागद्वेष करता है ? अहित विहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं, सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाद्दोषं समीक्ष्य भवे भवे, विषयविषवद्यासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः || १९२ ||
अर्थ :- संसार के प्राणी अज्ञानी हैं। अहितकारी विषयोंसे उनकी प्रीति नहीं है । विषय-भोगों में ही वे फस रहे हैं। परंतु वे भी जिन चीजों को अहितकारी समझलेते हैं उन चीजोंको तत्काल छोड देते हैं । देखो, स्त्री अत्यंत प्यारी वस्तु है । परंतु यदि एक वार भी मनुष्यको यह सुनाई पडजाय कि यह मेरी स्त्री कुकर्म करती है, तो वह मनुष्य उस स्त्रीको तत्क्षण छोडने के लिये तत्पर हो जाता है । पर तू तो ज्ञानी होकर
१ भवान्' इति पदं कर्तृ इति टीकायामुक्तम् ।
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