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हिंदी-भाव सहित (मिथ्या हर्षविषाद)। १८९
जन्म-मरणकी तुलनाःमृत्योर्मृत्य्वन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् । तत्र प्रमुदितान्मन्ये पाश्चात्त्ये पक्षपातिनः ॥ १८८ ॥
अर्थः-अरे भाई, तू मरनेको बुरा समझता है और जन्म होनेको अच्छा समझता है । पुत्रादिकोंके जन्मप्से तुझे खुशी होती है । यदि मरण हो जाय तो तू रोता है, दुःखी ' होता है। स्वप्नमें भी तू कभी अपना व पुत्रादिकोंका मरना पसंद नहीं करता । परंतु यह तो विचार कर कि, मरने व जन्म लेनेमें अंतर क्या है ? जन्मसे लेकर ही मरण समीप समीप आता जाता है। इसीलिये प्रत्येक समयमें भी मरण होना ही समझना चाहिये । तो फिर मरणसे डरता हुआ भी तू यदि जन्मको आनन्दका कारण समझता है वह क्यों ? वह मरण पहला है व जन्मके वादका दूसरा है । तो फिर जन्म भी एक तरहका मरण ही तो हुआ न ? भावार्थः-एक मृत्युसे निकलकर आगेकी मृत्युके फंदेमें पडना, यही जन्म लेनेका अर्थ हुआ न ? और जब कि ऐसा है तो जन्म होनेमें खुशी होना मानो आगे आनेवाले मरणके साथ प्रेम करना है । अब देख, कि तेरी भूलका क्या ठिकाना है ? दोनोंका मतलब मरण ही है । परंतु एक मरणसे तू, तो भी द्वेष करता है व दूसरे मरणसे प्रेम करता है। इस मिथ्या वासनाको तू छोड । यदि ऐसी मिथ्या वासनाएँ तेरी छूटी नहीं तो ज्ञान, संयम आदि धारण करना सव व्यर्थ है । देखः
अधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोरं तपो, यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सिं सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः, कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पकं फलम् ॥१८९॥ १ पुण्णंपि जो समीहदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । दूर तरस विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ॥ (स्वाभिकु० प्रेक्षा ).