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आत्मानुशासन.
अर्थ:-तेने संपूर्ण तो शास्त्रका अभ्यास किया और बहुत समयतक बडे बडे गहन तप किये । परंतु तू यदि इस शास्त्रज्ञानका व घोर तपोंका फल ऐसा चांहने लगा हो कि इससे अनेक विषय-सुखोंकी सामग्री प्राप्त हो तथा लोगोंमें मेरा आदर बढ जाय; तो कहना चाहिये कि तेरा हृदय तत्त्वज्ञानसे वंचित ही रहा। तू उस तपरूप सुंदर वृक्षके फल न चाह कर, फक्त फूलोंकी कच्ची कलियोंको तोर डालना चाहता है । अरे मूर्ख, ऐसा करनेसे तुझे इसके सुंदर मीठे असली फल कैसे मिल सकेंगे ? इसका असली फल मोक्ष है।
___ ज्ञान व तपश्चरणका फल:तथा श्रुतमधीत्य शश्वदिह लोकपक्तिं विना, शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः । कषायविषयद्विषो विजय से यथा दुयान् , शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तपःशास्त्रयोः ॥१९०॥
अर्थः-लोकव्यवहार व वंचना छोड दे। लोक तो अज्ञानी हैं ओर तू विवेकी कहलाता है। यदि अब भी तुझसे वंचना व विषयाभिलाषा छूटी नहीं तो तेरे विवेक व तपको धिकार हो । अब तो तू ऐसी तरह शास्त्रज्ञान उत्पन्न कर और शरीरको भी तपश्चरणद्वारा ऐसा कृष कर कि, जिससे कषाय कृष होसकें व विषयोंकी तरफसे इंद्रियोंकी इच्छा हट जासकै। कषाय-विषय बड़े ही दुर्जेय हैं । इनका जीतना सहज नहीं है। इनको वही जीत सकता है कि जो अपना सारा समय शास्त्राध्ययनमें विताता हो और जो तपश्चरण करता हो व शास्त्रमर्यादाका विचार करता हो । यदि कोई मिथ्या, अप्रसिद्ध तपोंको करने भी लगा हो और अत्यंत भी करै तो भी उससे अभिमान बढ जाता है, जिससे कि उलटा पाप ही संचित हो । यदि ऐसा हुआ तो तप व श्रुत, दोनो व्यर्थ हैं। साधुओंने तप व शास्त्रज्ञान का सच्चा फल यही बताया है कि विषयोंसे वैराग्य हो और क्षोभ या उद्वेग घट जाय ।