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आत्मानुशासन.
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प्राणी किसी एक वस्तुको जब कि इष्ट समझ रहा है तो उसकी हानि होनेपर उसे शोक पैदा होता है । शोक हुआ कि दुःख होना ही चाहिये। इसी प्रकार उस इष्ट मानी हुई चीजके मिलनेपर प्रेम बढता है । वस, प्रेम बढ़ा कि सुख प्रतीत होने लगता है । यह अवस्था अज्ञानियोंकी है। अरे, यदि शोकसे दुःख व प्रीति होनेसे सुख जान पडता है और वह सुख भी आकुलतापूर्ण होनेसे असली व अविच्छिन्न रह नहीं पाता तो किसीकी हानि होनेपर शोक करना व किसीका लाभ होते प्रीति करना, यह छोडदो । ऐसा करने से सदा सुख ही सुख रहेगा और वह सुख ऐसा होगा कि जिसका फिर विच्छेद ही न हो । जब कि विच्छेदके कारण ही नहीं रहेंगे तो विच्छेद क्यों होगा ? पर यह विचार होगा किसको ? उसको, जो सच्चा बुद्धिमान् होगा । इस प्रकार से यदि सर्व विषयों के हानि-लाभमें राग-द्वेष करना छोडदिया जाय तो निरवच्छिन्न सुख अवश्य मिलसकता है । देखो:सुखी सुखमिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकलसन्यासो दुःखं तस्य विपर्ययः ।। १८७ ।। अर्थ:- पूरी निराकुलता होना असली सुख है । दुःख नाम आकुलताका है । आकुलता के कारण विषय हैं। वे यदि रहैं तो आकुलता बढती है, नहीं तो नहीं । इसीलिये संपूर्ण विषयों को छोडकर विरक्त होकर बैठने से सदा सुख ही सुख प्राप्त होसकता है । और इसीलिये वह जीव इस जन्म में भी सुखी रहसकता है व पर लोक में भी सुखी ही रहेगा । किंतु जबतक विषयवासना छूटी नहीं है तबतक दुःख ही दुःख है । विषयासक्त जीव यहां तो आकुलतावश दुःखी रहते है और पर जन्ममें पापकर्म कमाकर ले जाते हैं, जिससे कि वे पापके उदयसे वहां भी सदा दुःखी ही बने रहते हैं । इसलिये कल्याणकी इच्छा है तो विषयोंसे उदास होकर रहो, तुझें सुख ही सुख मिलेंगे । और जबतक उदास नहीं हुए तबतक दुःख ही दुःख हैं ।
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