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हिंदी-भाव सहित (विषयत्यागकी दुष्करता )। १९५ शरीर व विषयोंसे प्रेम करना पूरा अज्ञान है। देखोः
शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि ।
नास्त्यहो दुष्करं न्हणां विषाद्वाञ्छन्ति जीवितुम् ॥१९६
अर्थः-- शरीरका रहना व विषयोंसे प्रेम होना ये दो ही बातें दुःखदायक हैं। शरीरको पुष्ट करना व विषय-सेवन करना मानो विष खाकर जीनेकी आशा करना है । परंतु अज्ञानी जनोंकेलिये कोई भी काम कठिन नहीं है। वे जो न करें वही आश्चर्य समझना चाहिये । देखो, शरीरका पोषण व विषयोंका सेवन ये दोनो काम अहितकारी होनेपर भी इन दोनो कामोंको अज्ञानी जन करते ही हैं ।
भावार्थ:-समझदार उसीको मानना चाहिये कि जो अपने शरीरके व विषयसेवनके वशीभूत न हो । जो इनके वश है उसे मानना चाहिये कि विष खाकर जीनेकी इच्छा रखनेवालेके समान वह नितान्त मूर्ख है। परंतु यह कलिकालकी महिमा है कि तपस्वीतक शरीरके नाश होनेसे डरते हैं । देखोः
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः।
वनाद्विषन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः ॥ १९७॥ __ अर्थः-मृग सभी जानवरोंमें कायर है । दिनमें वह चाहें जहां इधर उधर जंगलों में फिरता है, क्लेश भी उठाता है । परंतु रातका समय हुआ कि वनचर जंतुओंसे डरकर किसी गांवके आस-पास 'आजाता है। वस, यही दशा कलियुगके तपस्वियोंकी है। वे दिनमें चाहें जंगलोंमें हैं व कायक्लेशोंको भी सहलैं, परंतु रात हुई कि डरकर गांवों के समीप आकर वास करते हैं। पशुओंमें जो कायर हैं वे ही डरते हैं व छिपते हैं । सिंहादिक सदा निर्भय रहते हैं। परंतु तपस्वी तो निर्भय मनुष्योंमें अग्रेसर हैं। परंतु रे कलियुग! उनको भी विनश्वर व दुःखदायक शरीरसे इतना प्रेम !
१ 'जीवितम् । ऐसा भी पाठ है।