________________
१८४
आत्मानुशासन.
इसीलिये तत्त्वज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति करते रहना चाहिये । इससे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होगी । इसीका समर्थन: -
द्वेषानुरागबुद्धिर्गुणदोषकृता करोति खलु पापम् । तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहिता तयोर्मोक्षम् ॥ १८१ ॥ अर्थः- जीवोंकी मानसिक भावना एक तो रागद्वेषपूर्वक होती है और एक वीतराग होकर तत्त्वज्ञानी बननेपर होती है । रागद्वेषमि - श्रित भावना भी किसीकी तो स्वार्थपूर्ण, अन्याय भरित, पक्षपातपूर्ण होती है और किसीकी पक्षपातरहित न्यायानुकूल होती हैं। पहली अशुभ है, दूसरी शुभ है। वीतरागीकी जो भावना होती है वह तीसरी हैव शुद्ध है - मुक्तिका कारण है ।
अर्थात्, - गुणोंके साथ द्वेष, सन्मार्गके साथ द्वेष, सज्जनोंके साथ द्वेष, न्यायमार्ग के साथ द्वेष; एवं दोषोंमें या नीच कर्मों में राग, दुर्जनों के साथ राग, अन्यायमार्ग में चलनेकी इच्छा इत्यादि अशुभ कर्मोंके साथ राग व शुभ कर्मोंसे द्वेष होना, यह पापक मौके बंधका कारण होता है । इससे उलटी प्रवृत्ति अर्थात्, गुण व गुणी जनों में तथा न्यायमार्ग, धर्मकार्य आदिमें प्रीति होना और दोष व दुष्ट जनोंसे तथा अन्यायमार्ग - अधर्ममार्ग से द्वेष रहना, यह शुभ कर्म है। इससे पुण्यकर्मका बंध होता है । परंतु जिसकी बुद्धिमें गुण व गुणी देखकर आनंद नहीं होता और दोष व दुष्ट जनों को देखकर द्वेष नहीं होता ऐसी जो रागद्वेषरहित शुद्ध बुद्धि है वह मोक्षका कारण है । वह बुद्धि जिसे प्राप्त हो जाती है वह संसार से छुटकारा पाकर सदाकेलिये पवित्र व सुखी बन जाता है ।
1
भावार्थ यह कि, रागद्वेष न तो भले कामों में ही अच्छा है और न बुरे कामों में | क्योंकि, कर्मबंध के कारण प्रत्येक रागद्वेष हैं। ही । इसीलिये जिसे अपना परम कल्याण करना इष्ट है उसकी भावना रागद्वेष छोडकर केवल शुद्ध ज्ञानमें रहनी चाहिये ।