Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 207
________________ १८२ आत्मानुशासन. तैसा चितवन करै। ऐसा चितवन आत्मवेदी वीतरागके हाथसे ही होसकता है। जो कि मोही हैं वे जिस पदार्थको देखने लगते हैं उसीमें उनकी प्रीति, नहीं तो अप्रीति अवश्य व तत्क्षण उत्पन्न होती है । वह उत्पन्न हुए विना रहती नहीं। और वह उत्पन्न हुई कि जीवको कर्मबंधन तयार है । देखो: वेष्टनोद्वेष्टने यावत्तावद भ्रान्तिर्भवार्णवे। आवृत्तिपरिवृत्तिभ्यां जन्तोर्मन्थानुकारिणः ॥१७८॥ अर्थः-आवृत्ति, किसी वस्तुको अपनाना या अपनी तरफ खीचना । परिवृत्ति, किसी वस्तुको अहितकारी समझकर उसे दूर करना या उससे मन हटाना । अर्थात् राग व द्वेष । ये जबतक जीवसे छूटे नहीं हैं तबतक वस्तुओंके ग्रहण करनेसे भी कर्मबंध होता है व समय पाकर उदय प्राप्त होता है; और वस्तुओंके छोडनेसे भी कोंका बंध व उदय होता है। क्योंकि, वस्तुओंका छोडना व ग्रहण करना इन दोनो ही अवस्थाओंमें राग-द्वेष जाज्वल्यमान बना हुआ है। वेष्टन, बंध होना । उद्वेष्टन, फल देते हुए कर्मोंका छूटना । ये दोनो बातें तबतक अवश्य बनी हुई हैं जबतक कि रागद्वेष या इच्छापूर्वक बुरा भला मानकर वस्तुओंका छोडना व धरना होता रहेगा । वस, इसीका नाम संसारभ्रमण है । परंतु वस्तुओंके छोडने धरनेकी चिन्तामें मग्न रहना व अनात्मज्ञानी बनकर कर्मबंधनसे जकडना उदय - काल आनेपर और भी अधिक मोहित होकर उन्मत्तवत् दु:खी होना, इधर उधर जन्म धारण करते भटकना, इसीका नाम भवभ्रमण है । जबतक रागद्वेष हैं यह भ्रमण तबतक नहीं छूटेगा। जैसे रईमें पड़ी हुई रस्सीको मनुष्य जबतक साधकर निकालना तो न चाहे; किंतु एक छोकको खींचता रहै, एकको ढीला करता रहै तो रईके चक्कर कभी बंद न होंगे। उसके खीचनेसे भी बल पडते हैं

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